SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभुतम् ३११ अधुना प्रथमभेदरूपालोचनालक्षणं लक्षयन्त्याचार्यदेवाः-- जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्त परिणाम । आलोयणमिदि जाणह, परमजिणिंदस्स उवएसं ॥१०९॥ जो समभावे परिणाम संठवित्तु अप्पाणं पस्सदि-यः संसारशरीरभोगेभ्यो निविण्णमना: साधुः मित्रशत्रसुखदुःखजीवितमरणलाभालाभेष परमसमरसीभावेन परिणते समभावे स्वपरिणाम संस्थाप्य तस्मिन्नेव स्वस्थपरमसहजशुद्धचिच्चतन्यात्मनि स्थित्वा स्वात्मानं पश्यति जानाति अनुभवति तस्यैव जिनमुद्राधारिणो महामुनेः । आलोयणमिदि जाणह-निश्चयालोचना भवति तस्य महामुनेः, स मोहक्षोभविहीन: परिणाम एव निश्चयालोचना भवति, अथवा यो मुनिः परमसाम्छे परिणाम संस्थाप्य स्वशुद्धात्मानं पश्यत्यवलोकयति ध्यायति । स साधुरेत्र आलोचना निगद्यते गुणगुणिनोरभेवादिति । अथवा जो सं परिणाम समभावे ठवित्तु अप्पाणं पस्सदि तं परिणाम आलोयणं-यः मुनिः संपरिणाम समभावे स्थापयित्वात्मानं पश्यति तस्य तं परिणाम अब आचार्यदेव प्रथमभेदरूप आलोचना का लक्षण कर रहे हैं अन्वयार्थ (जो समभाबे परिणामं संठवित्तु अप्पाणं पस्सदि) जो समभाव में परिणाम को स्थापित कर आत्मा को देखते हैं, (आलोयणं इदि जाणह) उनके ही आलोचना होती है ऐसा तुम जानो, (परमजिणि दस्स उवएस) यह परमजिनेन्द्र का उपदेश है। टोका-जो साधु संसार-शरीर भोगों से निर्वेदचित्त होते हुए, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ में परम समरसीभाव से परिणत, समभाव में अपने परिणाम को स्थापित करके, उसमें ही-स्वस्थ परमसहज शुद्ध चिच्चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही स्थित होकर अपनी आत्मा को देखते हैं-जानते हैं और अनुभव करते हैं, उन्हीं जिनमुद्राबारी महामुनि के निश्चय आलोचना होती है। अथवा उन महामुनि का बह मोह क्षोभ से रहित परिणाम ही निश्चय आलोचना है । अथवा जो मुनि परमसमताभाव में परिणाम को स्थापित करके अपनी शुद्ध आत्मा का अवलोकन करते हैं, ध्याते हैं, वे साधु ही आलोचना कहलाते हैं, क्योंकि गुण और गुणी में अभेद होता है। अथवा गाथा का अन्वय इस प्रकार कर दीजिये कि 'जो सं परिणाम समभावे ठवित्तु अप्पाणं पस्सदि तं परिणाम आलोयणं' अर्थात् जो मुनि अपने परिणाम को समभाव में स्थापित करके आत्मा का
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy