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________________ ३१२ नियनसार-मामृतम् मालोचना जानीहि, इति भो भव्य ! त्वं जानीहि । फस्य कथनमेतत् ? परमजिणिदस्स उवाएस-लोकालोकप्रकाशिपरमजिनेन्द्रतीर्थकरमहाप्रभोः उपदेशोऽयम्, स्वं तं जानीहि । तद्यथा-कश्चिन्मुनिः स्वस्यावश्यकक्रियासु सावधानतया प्रवर्तमानोऽपि कदाचित् कस्मिचिद् व्रते संजातदोषान् ज्ञात्वा नवविधालोचनादोषेभ्यो विरहितः स्वगुरोः सान्निध्याभावे जिनेन्द्रदेवस्य सन्निधौ उपविश्यालोचयतिउक्तं च श्रीपमनंधाचार्येण-- "लोकालोकमनन्तपर्यययुत कालत्रयोगोचरम्, त्वं जानासि जिनेन्द्र ! पश्यतितरां शश्वत्सम सर्वतः । स्वामिन् ! वेत्सि ममैकजत्मजनितं दोषं न किंचित्कुतो, हेतोस्ते पुरतः स वाच्य इति मे शुद्धयर्थमालोचितुम् ॥८॥ अवलोकन करते हैं, उनके उस परिणाम को ही आलोचना जानो । ऐसा हे भव्य ! तुम समझो । शंका--यह किनका कथन है ? समाषान---लोकालोकप्रकाशी परमजिनेन्द्र तीर्थंकर महाप्रभु का यह उपदेश है, ऐसा तुम जानो। उसी को कहते हैं---- कोई मुनि अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति कर रहे हैं, फिर भी कदाचित् किसी व्रत में दोष लग गया है, ऐसा जानकर नवप्रकार की आलोचना के दोषों से रहित होकर अपने गुरु की निकटता न होने से जिनेन्द्रदेव के सांनिध्य में बैठकर आलोचना करते हैं। श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है--- हे जिनेंद्र ! आप त्रिकालवर्ती अनंतपर्यायों से सहित लोक एवं अलोक को सदा सब ओर से जानते ओर देखते हो, फिर हे स्वामिन् ! आप मेरे एक जन्म में उत्पन्न दोष को क्या नहीं जानते ? अर्थात् जानते ही हैं, फिर भी मैं आलोचना पूर्वक आत्म-शुद्धि के लिये अपने दोषों को आपके सामने प्रकट करता हूँ । व्यवहार
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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