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नियमसार-प्राभृतम् अत्रानन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपभावनमस्कारोऽशुद्धनिश्चयनयेन, नत्थति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारो व्यवहारनयन, शद्धनिश्चयेन तु स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति नयार्थो ग्राह्यः । आद्यौ द्वौ नमस्कारौ षष्ठगुणस्थानपर्यन्तम्, किन्तु शुद्धनिश्चयनयेन यो नमस्कारः, स तु आ सप्तमगुणस्थानात् क्षोणकषाय यावत् । इत परं नमस्कारार्हा एव भवन्ति ।
__ ग्रन्थोऽप्यथमन्वर्थनामा । अन्वर्थनाम कि ? यादृशं नाम तादृशोऽर्थः, यथा दहतीति दहनोऽग्निरित्यर्थः, तथैवास्मिन् ग्रन्थे नियमस्य रत्नत्रयस्य सारः शुद्धावस्था समीचीनावस्था या वर्ण्यते इति । तात्पर्यमिदम्-अनन्तगुणसमन्वितं वीरजिनं नमस्कृत्य सर्वज्ञदेवादिभिः कथितं नियमसारम् अहं कथयामि । संबन्धाभिधेयप्रयोजनान्यप्यत्र
यहाँ पर अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरणरूप भावनमस्कार किया गया है, वह अशुद्ध निश्चय से है । 'नत्वा' इस शब्द के द्वारा जो वचनात्मक नमस्कार है, वह व्यवहारण की अपेक्षा है। सात निश्चगनम से तो अपनी आत्मा में ही आराध्य-आराधक भाव है। इस प्रकार नयों का अर्थ ग्रहण करना चाहिए । इनमें से आदि के दो नमस्कार तो छठे गुणस्थान तक होते हैं। तथा शुद्ध निश्चयनय से जो नमस्कार किया जाता है वह सातवें गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान पर्यंत होता है । उसके आगे तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवली अहंत भगवान् और गुणस्थान से परे सिद्ध भगवान् हैं, वे तो नमस्कार के योग्य ही होते हैं।
यह ग्रन्थ भी अन्वर्थ नामवाला है । अन्वर्थ क्या है ? जिसका जैसा नाम हो वैसा ही अर्थ हो, उसे अन्वर्थनामक या सार्थक नामवाला कहते हैं। जैसे 'दहतीति दहनः अग्निः' जो जलाती है वह दहन-अग्नि है । उसी प्रकार से इस ग्रन्थ में नियम का सार कहा गया है।
तात्पर्य यह हुआ कि 'अनंत गुणों से समन्वित वीर जिनेंद्र को नमस्कार करके सर्वज्ञ देव आदि के द्वारा कथित नियमसार को मैं कहूंगा। इस ग्रन्थ में संबंध, अभिधेय और प्रयोजन को भी जानना चाहिए । यहाँ वृत्ति ग्रन्थ अर्थात् टीकावचन व्याख्यान है और उसके प्रतिपादक गाथा सूत्र व्याख्येय हैं। इन दोनों का जो संबंध है, वह व्याख्यान-व्याख्येय संबंध है | गाथा-सूत्र अभिधान हैं और उन