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नियमसार - प्राभृतम्
अण्णामपि - अन्यस्यापि संस्तरादिकस्य इति । एतेषां श्रामण्ययोग्योपकरणानामादाने निक्षेपणे च तद्वस्तु स्थानं या सावधानतया पूर्व चक्षुभ्यिमवलोक्य पुनः मृदुपिच्छिका परिमार्ण्य प्रारूप इतुरी समिति । अस्याः स्वामी सुतिरेव तथापि उत्कृष्टा: श्रावका अपि मृदूपकरणे प्रवर्तन्ते इति ज्ञास्था साधुभिः साध्वीभिः क्षुल्लकैः क्षुल्लिकाभिः श्रावकः श्राविकाभिश्च सततं प्रयत्नेन प्रवृत्तिविधातव्या ॥ ६४॥
अत्रुना प्रतिष्ठासमितेः स्त्ररूपं कीर्तयन्ति सूरयः—
पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पट्टासमिदी हवे तस्स ॥ ६५॥
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टीकाकार श्री वसुनंदि आचार्यदेव ने "अन्यदपि " का अर्थ " अन्य भी संस्तर आदि" कहा है।
इन श्रमणपद के योग्य उपकरणों के ग्रहण करने में और रखने में, वैसे ही कोई वस्तु या स्थान को साधानी पूर्वक चक्षु से देखकर पुनः कोमल पिच्छिका से परिमार्जन करके जो साधु प्रवृत्ति करते हैं, उनके यह चौथो समिति होती है । इसके स्वामी मुनि ही हैं, फिर भी उत्कृष्ट श्रावक भी मृदु उपकरण से परिमार्जन करके ही प्रवृत्ति करते हैं । ऐसा जानकर साधु, साध्वी, को सतत ही प्रयत्न पूर्वक प्रवृत्ति करना चाहिए ।
क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं
भावार्थ - यहाँ पर ज्ञान उपकरण शास्त्र के साथ ही लेखन में सहकारो कागज, लेखनी, स्याही आदि भी "अन्य उपधि में" ले लेना चाहिये, क्योंकि स्वयं मूलाचार के कर्ता कुंदकुंददेव ने सबसे अधिक ग्रन्थ लिखे हैं । उनके समय में ताडपत्र आदि जो भी साधन थे, वे सब इन्हीं में गर्भित हैं, ऐसा समझना ।। ६४ ।।
अब आचार्यदेव प्रतिष्ठासमिति का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ - ( पासुगभूमिपदेसे गूढे परोपरोहेण रहिए ) प्रासुक भूमिस्थान,
जो कि एकांत हैं और दूसरों के रोकटोक से रहित है, ( उच्चारादिच्चागो) जो वहाँ पर मलमूत्र आदि का त्याग करते हैं, (तस्स पट्टासमिदी हवे) उनके प्रतिष्ठा समिति है ॥६५॥