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नियमसार-प्राभृतम् कर्मोपाघिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिकः, यथा संसारिणामुतात्तिमरणे स्तः ॥६॥
असंयतसम्यग्दृष्टिीवः शुद्ध द्रव्याथिकपर्यायाथिकनयाभ्यां निजात्मानं शुद्धमेव श्रद्धत्ते, पुनः देशवतस्यानंतरं महाव्रतस्याचरणेन भेवरत्नत्रयपरिणतः सन् अप्रमत्तो भूत्वा निर्विकल्पसमाधिरूपे शुद्धोपयोगे स्थित्वा स्वशुद्धात्मानमनुभवाति, तवन क्षपकश्रेणीमारुह्य घातिकर्माणि निहत्य शुद्धो बुद्धोऽर्हन् परमात्मा जायते ।
ननु द्रव्यं पर्यायश्च द्वितयमेव तन्वं मन्तव्यम्, द्रव्याथिका पर्यायायिकश्च हो एक मूलनयौ इति उपदेशात । यति गणोऽपि कश्चित्स्यात् तद्विषयेण मूलनयेन तृतीयेन भवितव्यम्, न चास्त्यसौ, अतो गुणाभावात् 'गुणपज्जयहिं संजुत्ता तच्चत्या' इति वक्तुं न युज्यते ? नैवम्, अर्हत्प्रवचने गुणोपदेशात् । उक्तं हि तत्त्वार्थसूत्र
"द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" । तद्विषयो तृतीयो नयोऽपि न प्राप्नोति । किञ्च, द्रव्यस्य द्वौ आत्मानौ सामान्यं विशेषश्च । तत्र सामान्यमुत्सर्गोऽन्वयः गुण
कर्मों की उपाधि की अपेक्षा रखने वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे संसारी जीवों के जन्म और मरण हैं।
यहाँ यह समझना कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धद्रव्याथिक और शुद्ध पर्यायाथिक नयों से अपनी आत्मा को शुद्ध ही श्रद्धान करता है। पुनः देशवत के बाद महाव्रत का आचरण करके भेदरत्नत्रयरूप से परिणत होते हुये अप्रमत्त विरत होकर निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धोपयोग में स्थित होकर अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । अनंतर 'क्षपकोणी' पर चढ़कर घातिया कमों का नाश करके शुद्ध, बुद्ध, अहंत परमात्मा हो जाता है।
__ शंका-द्रव्य और पर्याय ये दो ही तत्त्व मानने चाहिये, क्योंकि द्रव्याथिक और पर्यायाथिक ये दो ही मूल नय हैं, ऐसा आगम का कथन है । और यदि गुण भी कुछ होता तो उसको विषय करने वाला मूल नय एक तीसरा होना चाहिये था, किंतु सो तो है नहीं, अतः गुणों का अभाव होने से "गुणपज्जायेहि संजुता तच्चत्था ।" ऐसा कथन युक्त नहीं है ?
__समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अहंत भगवान के प्रवचन में गुणों का उपदेश है । तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है-.-"जो द्रव्यों के आश्रित हैं और स्वयं में