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________________ ७४ नियमसार-प्राभृतम् कम्माणं ममगयं जीव जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुखणओ स्खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो ॥१८॥ भावेसु साययादी सवे जीवमि ओ दु जपेदि। सोहु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहि साक्षो ॥२१॥ वेहीणं पाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारिस्था।। जो सो अणिच्च सुखो पज्जयगाही हवे सो गओ ॥२०४॥ भण अणिच्चासुद्धा सजगजीवाण पञ्जया जो हु। होइ विभाव अणित्रो असुओ पज्जयस्थिणओ ॥२०५॥ तथैव चालापपद्धतिग्रन्थेकर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धव्यार्यिकः, यथा संसारी जीवः सिद्धसदृकशुद्धाश्मा ॥४॥ कोपाधिसापेक्षोऽ छद्रव्याधिफः, यथा क्रोधाविकमजभाव आत्मा ॥५०॥ कर्मोपाधिनिरपेक्षस्वभावो नित्यशुद्धपर्यायार्थिकः, यथा सिद्धपर्यायसवृषाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः ॥६॥ कर्मों के मध्य रहे हुए जीव को जो सिद्ध के सदृश ग्रहण करता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध नय है। भावों में जो रागादि भाव हैं वे सभी जीव में हैं, ऐसा जो कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धनय है । संसारी जीवों की पर्याय सिद्धों के सदृश शुद्ध हैं ऐसा जो कहता है वह अनित्य शुद्ध पर्याय नाही नय है और जो चतुर्गति के जीवों की अनित्य शुद्ध पर्यायों को कहता है वह विभावरूप अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है । यही बात आलापपद्धति में भी कहो गई है-- कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय है, जैसे संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध आत्मा हैं। कर्मों की उपाधि को अपेक्षा रखने वाला अशुद्ध द्रव्याधिक नय है, जैसे क्रोध आदि कमों से उत्पन्न हुये जो भाव हैं वह आत्मा है । कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्यशुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे सिद्धपर्याय के समान संसारी जीवों की पर्याय शुद्ध हैं ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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