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________________ १०४ नियमसार-प्राभतम् उक्तं च श्रीनेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवतिमुनिनाथः यवहारो पुण तिविहो, तीवो पट्टतगो भविस्सो छ । तीदो संखेज्जावलिहवसिद्धाणं पमाणं तु ॥५७८॥ सममोह यमाणो, जीवादो सध्यप्रगलादो वि। भावी अणंतगुणिदो, इदि बहारो हवे कालो ॥५७९॥ अत्र श्रीकुवकुंचवेवस्य गाथायां "सीदो संज्जावलिहपसंठाणप्पमाणं तु" एतत्पाठो लभ्यते, तस्य टीकायामपि श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवः कथ्यते, यत् "अतीतसिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादुर्भावसमयात पुरागतो ह्यावल्याविय्यहारकालः, स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः । अनागलकालोऽप्यनागतसिद्धानाममागतशरीराणि यानि तैः सबुश इत्यामुक्तः सकाशादित्यर्थः।" आसां पंक्तोनामर्थः स्पष्टतया न प्रतिभासते, प्रत्युत यदि संठाणस्थाने श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मुनिनाथ ने कहा भी है-- व्यवहार काल तीन प्रकार का है-~~-अतीत, वर्तमान और भविष्यत् । संख्यात आवलि से गुणित सिद्धों का जो प्रमाण होता है, उतना ही अतीत काल है। एक समय बर्तमान काल है । सबंजीव और पुद्गलराशि से अनन्तगुणा भविष्यत्काल है । यह सब व्यवहार काल है। यहाँ पर श्रीकुन्दकुन्ददेव की गाथा में "तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ।" यह पाठ मिल रहा है। इसकी टीका में श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ने कहा है कि 'अतीतकालीन सिद्धों के सिद्धपर्याय के उत्पन्न होने के समय से पूर्व में बीता हुमा जो आवलि आदि व्यवहार काल है, वह इन सिद्धों के संसार अवस्था में जितने संस्थान-आकार-शरीर व्यतीत हो चुके हैं, उनके सदृश होने से अनन्त प्रमाण हैं। अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जितने अनागत शरीर होवेंगे उनके सदृश होने से अनागत सिद्धों के मुक्त होने पर्यंत जितना अर्थात् अनन्त है ।" इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्टरूप से प्रतिभासित नहीं हो पाता है। बल्कि - - - - १. गोम्मटसार जोबकाण्ड ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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