SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार - प्राभूतम् १०५ "सिद्धाणं" पाठो भवेत् तर्हि परंपरानुसारेणार्थः परिस्फुटति । किंतु अधुना कस्मिचिदपि ग्रन्थे पाठभेदो न लभ्यते, अतरचर्चाया विषय एव एतत्प्रकरणम् 1 तथा एवमेव अग्रिमगाथायामपि क्वचित् पुस्तके "चाबि" - पाठो दृश्यते, क्वचित् "भाषि" पाठश्च लभ्यते । " भावि" - शब्देन भविष्यत्कालस्य लक्षणं लक्ष्यते, च "संपदी समया" पाठेन वर्तमानकालस्य लक्षणं निर्दिश्यते । टीकाकारैः एतयोर्द्वयोरवि कालयोर्लक्षणं न स्पष्टीकृतम्, तत्र टीकायां केवलं प्रोक्तम् - " मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशावनन्तगुणाः । के ते ? समयाः 1 कालाणवः लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक् तिष्ठति, स कालः परमार्थ इति । " आभिः पंक्तिभिरपि न स्फुटं लक्ष्यते भविष्यद्वर्तमानकालयोर्लक्षणम् । अस्मात् कारणात् इदमपि करणं चर्याया विषयो वर्तते । किन्तु श्रीनेमिचन्द्र देवस्थ गाथायुग्मं दृष्ट्वा मनसि एवमेव जायते, यत् भगवत्कुन्दकुन्ददेवानामपि एवमेवाभियदि " संठाण" पाठ के स्थान में "सिद्धाणं" पाठ होवे तो आचार्य परम्परा के अनुसार अर्थ स्पष्ट हो जाता है। किन्तु इस समय किसी भी प्रति में ऐसा पाठ - भेद नहीं मिल रहा है, इसलिये यह प्रकरण चर्चा का विषय बना हुआ है । इसी प्रकार अगली गाथा में किसी पुस्तक में "चावि" पाठ मिल रहा है और किसी में " भावि" पाठ दिख रहा है । "भावि" पाठ मिलने से भविष्यत् काल का लक्षण निकल आता है। उसी प्रकार "संपदी समया" पाठ से वर्तमान काल का लक्षण निर्दिष्ट हो जाता है। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलवारीदेव ने इन दोनों कालों का भी लक्षण स्पष्ट नहीं किया है । वहाँ टीका में मात्र - ' - " मुख्य काल के स्वरूप का यह कथन है । जीव राशि और पुद्गल राशि से अनन्तगुणे समय हैं और काला लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर पृथक-पृथक ठहरे हुये हैं, वह काल ही परमार्थकाल है ।" इन पंक्तियों से भी भविष्यत्काल और वर्तमान काल का लक्षण प्रस्फुट नहीं होता है | अतः यह भी प्रकरण चर्चा का विषय है । किन्तु श्री नेमिचन्द्राचायें की दोनों गाथाओं को देखकर मन में यह बात आती है कि भगवान् कुंदकुंददेव का भी ऐसा ही अभिप्राय रहा होगा, न कि अन्य ૪
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy