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________________ ११२ नियमसार-प्राभूतम् अनयोगार्थयोष्टीकायां अज्ञायमानगुरुनियोगवाक्यस्य स्पष्टीकरणं वर्तते । तद्यथा--"अयं वेदकसम्यग्दृष्टिः स्वयं विशेषमजानानो गुरोर्वचनाकौशलदुष्टाभिप्रायगृहीतविस्मरणादिनिबंधनान्नियोगादन्यथाव्याख्यानासद्भावं तत्त्वावसद्रूपमपि श्रद्दधाति, तथापि सर्वज्ञाज्ञाश्रद्धानात् सम्यग्दृष्टिरेवासौ। पुनः कदाचियाचार्यातरेण गणधरादिसूत्रं प्रदर्श्व व्याख्यायमानं सम्यग्रूपं यदा न श्रदधाति, तत:प्रभृति स एध जीवो मिथ्यावृष्टिर्भवति, आप्तसूत्राश्रिद्धानात्' ।" तआनहाम माननि मद्धानं दामादर्शनमेव । अन्यत्रापि उक्तं श्रीशिवकोटिसूरिभिः-- पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिहिटुं । सेसं रोचतो वि हु मिच्छाइदी मुणेयव्यों ॥३९॥ इन दोनों गाथाओं की टोका में "अज्ञायमानगुरुनियोग' वाक्य का स्पष्टीकरण सुन्दर है । उसी को देखिये यह बेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं तो विशेष जानता नहीं है और वचन द्वारा प्रतिपादन की अकुशलता से अथवा दुष्ट अभिप्राय से, या ग्रहण किये हुए अर्थ को भूल जाने आदि किन्हीं कारणों से यदि गुरु ने अन्यथा-गलत भी व्याख्यान कर दिया है, वह उस असत् रूप भी अर्थ का श्रद्धान करता है, फिर भी वह सर्वज्ञ की आज्ञा का श्रद्धान करने से सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह गुरु के वचन को शास्त्र के और सर्वज्ञ के बचन समझ रहा है। पुन. कदाचित् अन्य किसी आचार्य ने गणधर आदि सूत्र को दिखलाकर समोचीन स्वरूप का व्याख्यान कर दिया फिर भी वह उसपर श्रद्धान नहीं करता है तब वह उसो समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है क्योंकि आप्त द्वारा कथित सूत्र के अर्थ का उसने श्रद्धान नहीं किया है । इसलिए आप्त, आगम और गुरुओं का भी श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। श्री शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना ग्रन्थ में भी कहा है-- जो सूत्र में कथित एक पद अथवा एक अक्षर का भी श्रद्धान नहीं करता है, तो शेष सारे ग्रन्थ का श्रद्धान करते हुए भी वह मिथ्यादृष्टि है। १, लत्रिसारटोका, पृ० ११५ । २. भगवती आराधना, प्रथम आश्वास ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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