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नियमसार-प्राभृतम् स्यावेकः, अनेकप्रदेशस्कंधपरिणामशक्तियोगात् स्यादनेकः । कार्यलिङ्गनानुमीयमानसभावावेशात् स्यात्कार्यलिङ्गः, प्रत्यक्षज्ञानगोचरत्वपर्यायावेशात् स्पान्न कार्यलिङ्गः।"
एतत्स्वभावं परमाणु ज्ञात्वा किं कर्तथ्यम् ? यथायं परमाणुः स्वस्वभावेन परिणममानः शुद्ध इति आख्यायते तथैवात्माऽपि यवा स्वस्थभावेन परिणमति तदा शुद्ध इति उच्यते। परमाणुस्तु शुद्धो भूत्वा पुनरपि अशुद्धो भवितुमर्हति, किन्तु जीवस्तु यदा शुद्धो भवति ततःप्रभृति अनन्तानन्तकालेनापि पुनरशुद्धो न भवति इति ज्ञात्वा निजात्मद्रव्यस्य शोधने सष्ठ प्रयत्नो विधातव्य इति ।
ननु जीवद्रव्यस्य गुणपर्यायाः सन्ति, तथा सर्वेषामपि द्रव्याणामिति
से कथंचित् अनेक है। कार्यहेतु से अनुमान का विषय होने से कथंचित् कालिंग है और प्रत्यक्षज्ञान की विषय ऐसो पर्यायों की अपेक्षा से कथंचित् कार्यलिंग नहीं है ।
शंका-ऐसे स्वभाव वाले परमाणु को जानकर क्या करना चाहिये ?
समाधान-जैसे यह परमाण अपने स्वभाव से परिणमन करता हुआ "शुद्ध" कहा जाता है वैसे ही आत्मा भी जब अपने स्वभाव से परिणमन करता है तब "शुद्ध' कहलाता है। परमाणु तो शुद्ध होकर पुनः अशुद्ध हो सकता है किंतु यह जीव जब शुद्ध हो जाता है तब से लेकर अनंतानंत काल में भी पुनः अशुद्ध नहीं हो सकता है । ऐसा जानकर अपने आत्मद्रव्य को शुद्ध करने में अच्छी तरह प्रयत्न करना चाहिये।
___ शंका-जीव द्रव्य में गुण पर्यायें होती हैं वैसे ही सभी द्रव्यों में भी होती हैं ऐसा आपने कहा है । पुनः ये नहीं समझ में आया कि पुद्गल द्रव्य के कौन गुण हैं और कौन-कौन पर्यायें हैं ?
समाधान-आपने ठीक कहा है, इस पुद्गल द्रव्य के भी स्वभाव विभाव गुणपर्यायें हैं, उन्ही को आगे दो गाथाओं से भगवान् कुंदकुंददेव कह रहे हैं ।
भावार्थ-परमाणु एकप्रदेशी माना गया है इसलिए उसका वह एक प्रदेश का आकार ही आदि, मध्य और अंतरूप है । इसमें भी अर्थपर्यायरूप षड्गुण हानि १. सस्वार्यवातिमा अ० ५, सूत्र २५, वात्तिक १६ ।
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