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________________ नियमसार-प्रामृतम् १५७ एवं रसरूपाविरहितजीवस्वरूपप्रतिपादनमुख्यत्वेन एक सूत्र, सर्वेऽपि संसारिजीवाः सिद्धसदृशाः इति प्रतिपादनपरत्वेन द्वे सूत्र, जीवाः कथंचित्संसारिणः कथंचित् त्रिकालं शुद्धाः इति नथविवक्षाकथनमुख्यत्वेन एक सूत्रे, पुनः हेयोपादेयतत्त्वकथनपरत्वेन एक सूत्रम्, इति पंचभिः सूत्रैः विधिमुखकथनप्रधानत्वेन तृतीयसम्यग्ज्ञानाधिकारे द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः। पुनरपि सम्यग्दर्शनस्म लक्षणं पूर्वार्धन सम्यग्ज्ञानस्य चात्तरान प्रतिपादयन्तो भगवन्तः श्रीकुंदकुंददेवा आहुः विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसददहणमेव सम्मत्तं । 'संसयविमोहविन्भमविवज्जियं हादि सपणाणं ॥५१॥ विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसहहणमेव सम्मत-विपरीताभिनिवेशयियजितश्रद्धानं एवं सम्यक्स्वं विपरोताभिप्रायो दुराग्रहो वा विपरीताभिनिवेशस्तेन विजितं रहितं यत् तत्त्वार्थश्रद्धानं आप्तागमतत्त्वानां वा श्रद्धानं तदेव सम्यग्दर्शनम् । पुनः सम्यग्ज्ञानं किं ? संसयविमोहविब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि-संशयविमोह इस प्रकार रूप रस आदि से रहित जीव तत्त्व के प्रतिपादन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ। सभी संसारी जीव सिद्ध के समान हैं ऐसा प्रतिपादन करते हुए दो सूत्र हुए। जीव कथंचित् संसारी है और कथंचित् त्रिकाल शुद्ध है इस तरह नयविवक्षा को मुख्यता को कहने वाला एक सूत्र हुआ। पुनः हेयोपादेय तत्व के कथन की मुख्यता से एक सूत्र हुआ। ऐसे पाँच सूत्रों द्वारा विधिमुख से कथन को मुख्यता रखते हुए इस तृतीय सम्यग्ज्ञान अधिकार में दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ। पुनरपि गाथा के पूर्वाध से सम्यग्दर्शन का लक्षण और उत्तरार्ध से सम्यग्ज्ञान का लक्षण प्रतिपादित करते हुए श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं--- अन्वयार्थ-(विवरीयाभिणिबेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्त) विपरीत अभिप्राय से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है, (संसयविमोहबिब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि) और संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित सम्यग्ज्ञान है ॥५१॥ । टीका-विपरीत अभिप्राय या दुराग्रह से रहित आप्त, आगम और
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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