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________________ २२७ नियमसार-प्राभृतम् अत्र ग्रन्थे आवश्यकासहीनिसहीवचनं न गृहीतं पुनः कथं गृह्यते ? नेष दोषः, अन ग्रन्थे पंचपरमेष्ठिनां भक्तिर्गह्यते, सातु उपलक्षणमात्रमेव, अत इमा अपि क्रिया आयान्त्येव । तथा चाग्ने निश्चयपरमावश्यकाधिकारों वक्ष्यते, सोऽपि व्यवहारमंतरेण कथं संभवेत् ? अतोऽत्र आवश्यकादयोऽन्तीना एव । षष्ठगुणस्थाने व्यवहारनयस्य चारित्रं भवति, सप्तमगुणस्थानस्यापि प्रथमस्वस्थानाप्रमत्तभागे भेदरत्नत्रयमेव तावत्पर्यतमिवमेव चारित्रं जायते । तत्पश्चात् सप्तमगुणस्थानस्य सातिशयाप्रमत्तनामद्वितीयभागाद् आरभ्य आ क्षीणकषायगुणस्थानात् णिच्छयण यस्स चरणं-निश्चयनयाश्रितस्य चारित्रं विद्यते । अस्मात्कारणात एत्तो उड्ढे-एतस्मात् ऊर्ध्व व्यवहाररत्नत्रयकथनस्यानंतरं तदेव पवक्खामि-अहं कुन्दकुन्दाचार्यः प्रकर्षेण वक्ष्ये । तथाहि--मुनयः त्रिविधा:--प्रारब्ध-घटमान शंका-इस ग्रंथ में आवश्यक क्रिया, असहो और निसही शब्दों को नहीं लिया है, पुनः आपने कैसे लिया ? समाधान---यह कोई दोष नहीं है, इस ग्रंथ में पंचपरमेष्ठी की भक्ति ली गई है, यह तो उपलक्षण मात्र ही है, इसलिए ये भी क्रियायें आ ही जाती हैं। तथा आगे निश्चय परम आवश्यक अधिकार नाम का ग्यारहवां अधिकार कहा जायेगा, वह भी बिना व्यवहार आवश्यक क्रिया के कैसे संभव होगा? अतः यहाँ पर आवश्यक आदि अन्तर्भूत ही हैं। अब इस विषय को गुणस्थानों में घटित करते हैं-- छठे गुणस्थान में व्यवहारनय का चारित्र होता है, सातवें गुणस्थान के पहले स्वस्थान अप्रमत्तभाग में भेदरत्नत्रय ही है, अत: वहाँ तक यही व्यवहारचारित्र रहता है । इसके बाद सातवें गुणस्थान के सातिशय अप्रमत्त नामक दूसरे भाग से प्रारम्भ करके क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त निश्चयनय के आश्रित चारित्र होता है। इस हेतु से इस व्यवहार रत्नत्रय कथन के अनंतर मैं कुन्दकुन्दाचार्य उसी निश्चयचारित्र को कहूँगा। उसी का किचित् स्पष्टीकरण करते हैं-- मुनि तीन प्रकार के होते हैं--प्रारंभक, घटमान और निष्पन्न । उसमें से
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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