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________________ २२६ नियमसारश्राभूतम् प्रोक्तं चानगारधर्मामृते- " आवश्यकानि षट् पंचपरमेष्ठिनमस्क्रिय्याः । निसही खासही साधोः क्रियाः कृत्यास्त्रयोदश ॥ निसह्य सही प्रयोगविधिमाह वसत्यादौ विशेत् तत्स्यं भूतादि निसहीगिरा । आपृच्छ्य तस्मान्निर्गच्छेत्तं चापृण्यासहीगिरा ॥" असही निसगं श्रीकुंकुंम् "णिगामणे आसिया भणिया । पविसंते थ मिसीही " " णिगमणे - निर्गमने गमनकाले । आसिया - आसिका देवगृहस्थादीन् परिपुच्छ्य यानं पापक्रियादिभ्यो मनो निर्वर्तनं या । भणिया- भणिताः कथिताः । पविते य-प्रविशति च प्रवेशकाले, णिसिही- निषेधिका तत्रस्थानभ्युपगम्य स्थानकरणं सम्यग्दर्शनादिषु स्थिरभावो वा ।" अनगारधर्मामृत में कहा है छह आवश्यक क्रियायें, पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, निसही और असही, साधु की ये तेरह क्रियायें हैं । निसही और असही की प्रयोगविधि बतलाते हैं 'सतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ पर स्थित भूत आदि देवों को "निसही" शब्द से पूछकर प्रवेश करे और वहाँ से निकलते समय उनसे " असही" शब्द से पूछकर वहाँ से निकले ।' श्री कुंदकुंददेव ने भी मूलाचार में असही निसी का लक्षण बतलाया है" निर्गमन में आसिका कही गई है और प्रवेश में निसोही ।" इसकी टीका में श्रीवसुनंदि आचार्य ने स्पष्टीकरण किया है- गमन के समय देव, गृहस्थ आदि को पूछकर निकलना अथवा पापक्रिया आदि से मन को दूर करना यह "आसिका" किया है और प्रवेश के समय वहाँ के देवता, गृहस्थ आदि को पूछकर उनको स्वीकृति लेकर वहाँ रहना अथवा सम्यग्दर्शन आदि में स्थिर भाव का होना यह निषेधिका क्रिया कही गई है । १. अनगारवर्भामृत, अध्याय ८, श्लोक १३०, १३२ । २. मूलाचार, अध्याय ४, समाचाराधिकार ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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