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________________ नियमसार-प्राभृतम् असौ स्वभावदष्टिः केवलिनामेव, परं शक्तिरूपेण संसारिजीवानामपि । अतो निजक्शनशक्तिव्यक्त्यर्थ "preोsहं. शोह, शानदर्शनस्वभादो हम"-इति भावद्भिः सद्भिः सततं स्वस्वरूपे एव अविचलदृष्टिनिधातव्या ॥१३॥ अघुना गाथामाः पूर्वार्धन विभागदृष्टिभेदान् उत्तरार्धेन च पर्यायभेदान् कथयन्ति सूरथःचक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विभावदिच्छि त्ति। पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥१४॥ चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि विभावदिच्छि त्ति भणिदं-चक्षुरचक्षुरवधयः तिस्रोऽपि विभावदृष्टिः इति भणिता । तद्यथा-अयमात्मा अनाविकालतः कमरजसा आच्छादितः सन् अभ्यन्तरे चक्षुर्दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमाद् बहिरङ्गे चक्षुर्द्रव्येद्रियालम्बनाच्च मूर्तिकवस्तुसत्तासामान्यं परोक्षरूपेण येन पश्यति कार्यस्वभावदर्शन तो दर्शनावरण आदि घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुआ केवलदर्शन ये स्वभावदर्शन केवली भगवान् के ही हैं। किंतु शक्तिरूप से संसारी जीवों के भी हैं । इसलिये अपनी दर्शन-शक्ति को प्रगट करने के लिये “मैं एक हूं, मैं शुद्ध हूं, मैं ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला हूं।" इस प्रकार की भावना को करते हुए सतत अपने आत्मस्वरूप में ही अविचल दृष्टि रखनी चाहिये ।।१३।। अब आचार्यवर्य गाथा के पूर्वाध से विभावदर्शन के भेदों को और उत्तरार्ध से पर्यायों के भेदों को कहते हैं अन्वयार्थ--(चक्खु अचक्ख ओही तिषिणवि विभावदिच्छि त्ति भणिद) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों विभाव दर्शन कहे गये हैं। (पज्जाओ दुवियप्पो) पर्याय के दो भेद हैं (सपरावेरखो य णिरवेक्खो) स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष ॥१४॥ टीका-चक्षु, अचक्षु और अवधि ये तीनों 'विभाब दर्शन' हैं। यह आत्मा अनादिकाल से कमरज से ढका हुआ है। यही आत्मा अभ्यंतर में चक्षुदर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम होने से और बहिरंग में चक्षु नाम की द्रव्येद्रिय का अवलंबन लेकर जिसके द्वारा मूर्तिक वस्तु के सत्ता-सामान्य को परोक्षरूप से अवलोकन करता है, उसका नाम 'चक्षुदर्शन' है । उसी प्रकार अंतरंग में चक्षुइन्द्रिय से अतिरिक्त
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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