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________________ नियमसार-प्रामृतम् तच्चक्षुर्दर्शनम् । तथैव अंतरङ्गे चक्षुजितशेषेन्द्रियावरणमनइन्द्रियावरणक्षयोएशमाद् बहिरङ्गे स्वकीयस्वकीयद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्तवस्तुसत्तासामान्यं परोक्षरूपेण येन पश्यति तवचक्षुर्वर्शनम्। स एवात्मा अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमान्मतवस्तुगतसत्तासामान्यमेकदेशः त्यक्षेण येन पश्यति तदवधिदर्शनम् । एतानि त्रीण्यपि विभावदर्शनानि कर्मोपाधिसापेक्षत्वात् । आद्ये द्वे दर्शने मिथ्यात्वगुणस्थानात क्षीणकषायपर्यन्तं स्तः । पुनः अवधिबर्शनं चतुर्थात् प्रारभ्य क्षीणकषायं यावत् । यद्यपि विभावदर्शनमशुद्धनयनात्मनः स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र-इन्द्रियावरण और मन-इन्द्रियावरण के क्षयोपशम से तथा बहिरंग में अपनी-अपनी द्रव्येद्रियों के अवलम्बन से जिसके द्वारा यह आत्मा मूर्तिक वस्तुओं के सत्तासामान्य को परोक्षरूप से अवलोकन करता है, वह 'अचादर्शन' है। वही आत्मा अवधि-दर्शनावरण के क्षयोपशम से मुर्तिक वस्तुगत सत्तासामान्य को जिसके द्वारा एक देश प्रत्यक्षरूप से अवलोकन करता है, वह 'अवधिदर्शन' है । ये तीनों ही विभावदर्शन हैं, क्योंकि ये कर्म की उपाधि से सहित हैं । गुणस्थानों में इन दर्शन को बताते हैं आदि के दो दर्शन 'मिथ्यात्व' गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामकबारहवें गुणस्थान तक होते हैं। और अवधिदर्शन चौथे गुणस्थान से बारहवें तक रहता है। यद्यपि ये विभावदर्शन अशुद्धनय से आत्मा के स्वभाव हैं, फिर भी पर के आश्रित होने से हेय हैं, ऐसा जानकर सहज विमल केवल दर्शन स्वरूप जो परमात्म तत्त्व है, उसी की भावना करनी चाहिये। यहाँ तक आचार्यदेव ने ज्ञानदर्शन लक्षण जीव का स्वरूप कहा है। अब पर्याय का स्वरूप कहते हैंपर्याय के दो भेद हैं—स्वपरापेक्ष और निरपेक्ष । जो “परि"-सब तरफ से "एति'-भेद को प्राप्त होता है, वह पर्याय है । जिसमें स्व और पर इन दोनों की अपेक्षा रहती है, वह स्वपरापेक्ष विभाव पर्याय
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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