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नियमसार-प्राभृतम स्वरूपं तथापि पराश्रितस्वात् हेयमिति ज्ञात्वा सहजविमलकेवलदर्शननिजपरमात्मसत्त्वे एव भावना कर्तव्या ।
अत्रपर्यन्तं ज्ञान नक्षणं जीवस्वरूपं व्याख्यातम् । अधुना पर्यायस्वरूपमाल्यायते-पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो-पर्यायो द्विविकल्पः-स्वपरापेक्षः, निरपेक्षश्च । परि समन्तात् भेवमेति गच्छतोति पर्यायः । स्वश्च परश्च स्वपरी तयोरपेक्षा यस्यासौ स्वपरापेक्षः, विभावपर्याय इति यावत्। स्वपरयोः अपेक्षायाः निर्गतः विजितः स निरपेक्षः स्वभावपर्याय इति । एतयोलक्षणं अग्निमसूत्रे वक्ष्यते।
एतदुक्तं भवति–जीवस्य स्वभावविभावगुणान् ज्ञात्वा पर्याया अपि ज्ञातव्याः । पुनश्च स्वभावगुणपर्यायपरिणतजीवद्रव्यमुपादेयं विभावगुणपर्यायपरिणतजीवद्रव्यं हेयमिति मत्वा निजशुद्धस्वभावगुणपर्यायपरिणतसिद्धपरमात्माराधनाबलेन स्वशद्वात्मस्वरूपमेव चिन्तनीयम् ॥१४॥ है । और जिसमें स्व पर दोनों की अपेक्षा नहीं है, वह निरपेक्ष स्वभाव पर्याय है । इस दोनों का लक्षण अगली गाथा में आचार्य स्वयं करेंगे ।
___ यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि जीव के स्वभाव और विभाव इन दोनों प्रकार के गुणों को जानकर पर्यायों को भी जानना चाहिये । अनंतर स्वभाव गुण पर्यायों से परिणत जीवद्रव्य ही उपादेय है, और विभावगुण पर्यायों से परिणत हेय है । ऐसा मानकर जिन शुद्ध स्वभावगुण पर्याय से परिणत हुए सिद्ध परमात्मस्वरूप का ही चितवन करना चाहिये।
भावार्थ-यहाँ टीका में चक्षुर्दर्शन आदि को अशुद्धनय से आत्मा का स्वभाव कहा है । और तत्त्वार्थसूत्रकार ने जीव के क्षयोपशम आदि पाँचों भावों को स्वतत्व अर्थात् स्वभाव कहा है। वह भी उसी दृष्टि से कहा है । यहाँ इस ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने तो इन्हें जीव के विभाव ही कहा है । यहाँ पर भी इन विभाव दर्शन को गुणस्थानों में घटित करके नयों की अपेक्षा से भी घटित किया है।
जैसे ज्ञान में मिथ्यात्व के निमित्त से तीन ज्ञान हो जाते हैं, वैसे यहाँ दर्शन में मिथ्यात्व के निमित्त से कुदर्शन की बात नहीं है। हाँ इतना अवश्य है कि यह अवधिदर्शन अब विज्ञान के पूर्वक्षण में माना गया है, किंतु विभंगावधि के पूर्व नहीं माना है ॥१४॥