________________
नियमसार-प्राभृतम् सति समस्तवस्तुगतसत्तासामान्य सफलप्रत्यक्षरूपेणेकसमये पश्यति येन, स स्वभावदर्शनोपयोगः । तत्केवलं परसंबन्धरहितत्वात्, इंद्रियरहितमतीन्द्रियं लब्ध्युपयोगलक्षणभाद्रियनोइंद्रियावलम्बनाभावत्वात्, असहायमुपात्तानुपत्तासाहाय्यानपेक्षत्वात् । एतद आत्मनः सहजस्वभावत्वादेव स्वभाववर्शनमिति गीयते । इक्मपि लोकालोकव्यापि वर्ततेउक्तं च प्रवचनसारमन्ये
"णाणं अस्थतगयं लोयालोएसु वित्थडा विट्ठी" "१६।१" ज्ञानमर्थस्य ज्ञेयस्यान्तर्गतं पारंगतम्, लोकालोकेषु विस्तृता दुष्टि:-इति । टीकाकाराभिप्रायेण स्वभावदर्शनमपि द्विविधं, कारणस्वभाववर्शनकार्यस्वभावदर्शनभेदात् । तत्र प्रथमं सहजपारिणामिकभावस्वभावकारणसमयसाररूपपरमचैतन्यसामान्यस्य स्वरूपावलोकनमात्रमेव । कार्यस्वभावदर्शनं तु दर्शनावरणप्रमुखधातिकर्मक्षयण जातं केवलदर्शनमेव ।
दर्शनावरग' कर्म का नाश हो जाने पर समस्त वस्तु के सत्ता-सामान्य को जिसके द्वारा सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में देख लेता है, उसी का नाम 'स्वभावदर्शनोपयोग है। वह पर के संबन्ध से रहित होने से 'केवल' है । लब्धि और उपयोग लक्षण वाली भावेंद्रिय और नोइंद्रिय के अवलम्बन के अभाव से इंद्रिय-रहित अतीन्द्रिय है | इंद्रिय, प्रकाश आदि बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रखने से असहाय है । यह आत्मा का सहज स्वभाव होने से ही स्वभावदर्शन कहलाता है। यह भी लोक और अलोक में व्यापी है।
सो ही प्रवचनसार ग्रन्थ में कहा है--- "ज्ञान पदार्थों के अंत को प्राप्त है और दर्शन लोक अलोक में फैला हुआ
ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के अंत को प्राप्त है--पार को प्राप्त है। और दर्शन लोक अलोक तक व्याप्त है। टीकाकार श्री पद्मप्रभ मलधारी देव के अभिप्राय से यह स्वभाव दर्शन भी दो प्रकार का है-कारणस्वभावदर्शन और कार्यस्वभावदर्शन । उनमें से जो पहला दर्शन है वह सहज पारिणामिक भाव स्वभाव जो 'कारण समयसार' रूप परम चैतन्य-सामान्य, उसके स्वरूप का अवलोकन मात्र ही है। और १. प्रवचनसार ।