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नियमसार- प्राभृतम्
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तात्पर्यमेतत् यावदाहार विहार नीहारप्रवृत्तिर्विद्यते मुनिवराणाम् तावद् देवगुरुश्रुत वंदनाभक्तिस्तुत्यादिशुभावश्यक क्रिया विधातव्या भवन्ति, अतो व्यवहारनिश्चययोः परस्परं मैत्रों स्थापयद्भिः सरागचारित्रधारिसंयतेः कदाहमन्येषां पारवश्यं त्यक्तुं क्षमो भविष्यामीति भावनया सततं स्वमनोयानरः स्ववशे कर्तव्यः ॥ १४४॥ यः कश्वित् षद्रव्यगुणपर्यायं चितयति स वीतरागी भवेन्न देति समादधते श्रीसूरिवर्या :
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दव्वगुणपज्जयाणं, चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो । मोहांधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ॥ १४५ ॥
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणई - जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु तेषां गुणपर्यायेषु स्वपरयोर्भेदविज्ञानमकृत्वा यः साधुः चित्तं करोति, अथवा द्रव्यगुणपर्यायाषी विचारण फिल्पध्यानं करोति सहजवमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजपर
तात्पर्य यह हुआ कि जब तक मुनियों के आहार, विहार और नोहार प्रवृत्तियाँ हैं तब तक देववन्दना, गुरुवन्दना, श्रुतवन्दना, इनकी भक्ति, स्तुति आदि शुभ आवश्यक क्रियायें करनी ही होती हैं। इसलिये व्यवहार और निश्चय में परस्पर मित्रता स्थापित करते हुये मरागचारित्रधारीमुनियों को " कब में अन्य सभी की परवशता छोड़ने में समर्थ होऊँगा" ऐसी भावना के द्वारा सतत ही अपने मनरूप बन्दर को अपने वश में कर लेना चाहिये || १४४ ||
जो कोई मुनि छह द्रव्य और उनके गुणपर्यायों का चितवन करते हैं वे वीतरागी हैं या नहीं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान कर रहे हैं
अन्वयार्थ - - ( जो दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं कुणइ ) जो द्रव्य, गुण और पर्यायों में मन को लगाते हैं । (सोवि अण्णवसो) वे भी अन्यवश हैं । (मोहांश्रयारववगयसमणा एरिसयं कहियंति ) मोहांधकार से रहित - वीतराग श्रमण ऐसा कहते हैं ।
टीका - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों में, उनकी गुणपर्यायों में स्व और पर के भेद विज्ञान को न करके जो साधु उन द्रव्यादि में मन को लगाते हैं । अथवा द्रव्य गुणपर्यायों के चितवन से सविकल्प ध्यान करते हैं ।