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नियमसार-प्राभृतम् इतो विस्तरः-पद्रव्येषु जीवपुद्गलौ द्वौ एव मतिक्रियाशीलौ स्तः, शेषद्रव्याणि चत्वारि "नित्यावस्थितान्यरूपाणि । निष्क्रियाणि च धर्माधर्मकालद्रव्याणि लोकाकाशं यावत्तिष्ठन्ति । शुद्ध जीवाः शुद्धपुद्गलपरमाणवः स्वभावगति कुर्वन्ति, अशुद्ध जीवपुद्गला विभावगतिक्रियापरिणताः सन्ति । ततः शुद्धसिद्धजीवा अपि स्वभावेन ऊर्ध्वगमनं कुर्वन्तोऽपि अलोकाकाशे धर्मास्तिकायाभावात् लोकशिखरे तिष्ठन्ति । ननु शुद्धाः सिद्धजीवाः स्वाधीना एव, पुनः कथं धर्मद्रव्याश्रिता भवन्ति ? सत्यमेतत्, पाप सिद्धाः परमात्मानः सर्वशक्तिमन्तः स्वाधीनास्तथापि उपचरितासद्भुतम्यवहारनयेन अनेनैव श्रीकुंवकुंददेवकथनानुसारेण च कथंचित परद्रव्याश्रिता अपि गोयन्ते । ननु सिद्धजोबानामुपरि अलोकाकाशे गमनस्य योग्यता नास्ति इति मन्यमाने को दोषः ? महान् वोषः । ऊर्ध्वगमनस्वभावत्वात्तेषां गमनयोग्यता तु वर्तते,
धर्मास्किाय का अभाव होने से वे जीव और पुद्गल लोकाकाश के बाहर नहीं जाते हैं।
इसी का विस्तार करते हैं-"छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही मतिक्रियास्वभावी हैं, इसलिये निष्क्रिय हैं" यह सूत्र का कथन है। इस कारण ये धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य लोकाकाश तक ही रहते हैं।
शुद्ध जीव और शुद्ध पुद्गल परमाणु स्वभाव गति को करते हैं, अशुद्ध जीव और अशुद्ध स्कंध पुद्गल विभाव गति क्रिया से परिणत होते हैं। इसलिये शुद्ध, सिद्ध जीव स्वभाव से ऊध्र्वगमन करते हुए भो अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के शिखर पर ठहर जाते हैं।
शंका--शुद्ध सिद्ध जीव स्वाधीन ही हैं, पुनः वे धर्म द्रव्य के आश्रित कैसे हैं ?
समाधान आपका कहना ठोक है, यद्यपि सिद्ध भगवान् सर्वशक्तिमान् हैं, स्वाधीन हैं, तथापि उपचरित असद्भुत व्यवहारनय से और इसी श्री कुंदकुंददेव के कपनानुसार वे कथंचित् पर के आश्रित भी कहे जाते हैं।
शंका-सिद्ध जीवों के ऊपर अलोकाकाश में गमन करने की योग्यता नह। है, ऐसा मानने में क्या दोष है ?
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ०५, सूत्र ।। - २. तत्त्वार्थसूत्र, अ० ५, सूत्र ७ ।