SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 490
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभृतम् रागसम्यक्त्वचारित्राविनाभावि अभेदरत्नत्रयं मे शीन भूयादिति भावनया स्वत्र व्यक्षेत्रकालानुरूपां भावविशुद्धिं वर्धयद्भिः भवद्भिरपि स्वपदानुकूला निर्दोषप्रवृत्तिः विधातव्या । निश्चयावश्यक प्रापयितुं समर्थ व्यवहारावश्यकं ममापि परिपूर्ण भवेदिति भावनया मे महावतप्रदायिने धीरवीरगभोरगुणसमुद्राय शिष्यानुग्रहकुशलाय घविषसंघधुर्यायाचार्याय श्रोवोरसागरगुरुवर्याप त्रिकरणशुद्धया मे नमोऽस्तु । एवं निश्चयावश्यककरणप्रेरणापरत्वेन गाथाद्वयं प्रतिपाद्य तीर्थकरचक्रधरहलधरविद्याधरादिमहापुरुषाः जैनेश्वरीं दीक्षामादायमामावश्यकक्रियां कृत्वार्हन्त्यलक्ष्मी लेभिरे इति फलसूचनयोपसंहारपरत्वेन चैका गाथा कथिता, इति त्रिभिः गाथासूत्रैश्चतुर्थोऽन्तराधिकारः । एवं त्रिचतुश्चतुस्त्रिगाथाभिरन्तराधिकारचतुष्टयं गतम् | ___ अस्मिन् नियममारग्रन्थे पूर्वकथितप्रकारेण "णाहं णारयभावो" इत्याद्यष्टाक्शगाथाभिः निश्चयरत्नत्रयान्तर्गतपरमार्थप्रतिक्रमणप्ररूपणम् "मोत्तण सयलजप्पं" अभेदरत्नत्रय मुझे शीघ्र ही प्राप्त होवें, ऐसी भावना से अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुरूप भावविशुद्धि का बढ़ाते हुये आपको भी अपने पद के अनुकूल निर्दोष प्रवृत्ति करते रहना चाहिये। निश्चय आवश्यक को प्राप्त कराने में समर्थ जो व्यवहार आवश्यक हैं, वे मेरे भी परिपूर्ण होवें, इस भावना से, मुझे महावत को देने वाले, धीर, बीर, गंभीर गुणों के समुद्र, शिष्यों के ऊपर अनुग्रह करने में कुशल, चतुर्विध संघ के धुर्य प्रधान, आचार्य श्री बीरसागर गुरुवयं को मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक मेरा नमस्कार होवे । इस तरह निश्चय आवश्यक की करने की प्रेरणा वाली दो गाथाओं का प्रतिपादन कर, तीर्थकर, चक्रधर, हलधर-बलदेव और विद्याधर आदि महापुरुषों ने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर इन आवश्यक क्रियाओं को करके आर्हन्त्य लक्ष्मी को प्राप्त किया है, इस तरह फल की सूचना से और प्रकरण का उपसंहार करने पूर्वक यह एक गाथा कही गई है । इन तीन गाथाओं द्वारा यह चौथा अंतराधिकार हुआ । इस प्रकार तीन, चार, चार और तोन गाथाओं द्वाग चार अंतराधिकार हुये हैं। इस नियमसार ग्रन्थ में पूर्वकथित प्रकार से 'णाहं णारयभावो" इत्यादि अठारह गाथाओं द्वारा निश्चयरत्नत्रय के अंतर्गत परमार्थ प्रतिक्रमण का प्ररूपण
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy