SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार-प्राभूत इत्थमेयोमास्वामिविरचिततत्त्वार्थसूत्र प्रति श्रीविद्या विमहोदयेन प्रोक्तम् ___ "प्रमाणमागमः सूत्रमाप्तमूलत्वसिद्धित.'।" मार्गों जिनमार्गो वा रत्नत्रयस्वरूपो मोक्षमार्गोऽत्र विवक्षितॊऽशरूपो भवेत् सकलरूपो वासौ सुंदरः शोभनः प्रशस्तो रमणीयश्चापि लक्ष्यते । किंचास्यावलम्बनेनैव इह संसारे जीवाः तीर्थंकरदेवेन्नधरणेन्द्रचक्रवर्तिबलदेववासुदेवकामदेवमहामण्डलीकमंडलीकप्रतिपदानि लभन्ते । कि बहना, यत्किमपि सर्वोत्कृष्टं स्थानं तदपि अनेन मार्गेणैव लभ्यते । असोकावयवर्भूतसम्यक्त्वमपि लब्ध्या जीवा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्श्रीपर्यायेषु न गच्छन्ति, दुष्कुलविकृताल्पायुरिन्द्रयाविक न प्राप्नुवन्ति । सामान्यनायमेकोऽपि आधारापेक्षया द्वेधा जायते, श्रमणगृहस्थभेदात् । एष धर्मस्तीर्थकरपरमदेवैः प्रज्ञप्तोऽस्ति । ऐसे ही श्री उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र के प्रति श्री विद्यानंदी आचार्य ने कहा है-- यह सूत्रग्रंथ आप्तमूलक हैं इस बात को सिद्धि हो जाने से वे जैन आगम प्रमाण हैं । अर्थात् इन सूत्रों के मूलप्रणेता भगवान् सर्वज्ञदेव ही हैं, इसीलिये यह शास्त्र प्रमाण है। यहाँ पर मार्ग से जिनमार्ग अथवा रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग ही विवक्षित है। वह अंशरूप हो या सकलरूप । अर्थात् अणव्रतरूप हो या महाव्रतरूप, यही सुन्दरशोभन है, प्रशस्त है और रमणीय है, क्योंकि इसके अवलंबन से ही इस संसार में जीव तीर्थंकर, देवेंद्र, धरणेंद्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव, महामंडलोक और मंडलीक आदि पदों को प्राप्त कर लेते हैं। अधिक कहने से क्या ? जो कोई भी सर्वोत्कृष्ट स्थान हैं, वे सभी इस मार्ग से प्राप्त होते हैं। इस मार्ग के एक अवयवरूप सम्यक्त्व को भी प्राप्त करके ये जीव नारकी, तियंच, नपुंसक और स्त्रो पर्यायों में नहीं जाते हैं । नीच कुल, विकृत शरीर-विकलांग, अल्पायु और दरिद्रता आदि को नही प्राप्त करते हैं। सामान्य रूप स यह मार्ग एक होते हुये भो आधार की अपेक्षा से मुनि और गृहस्य के भेद से यह दो प्रकार का हो जाता है । इस धर्म को तीर्थकर परमदेवों ने प्रतिपादित किया है। १. तत्वावलोकवात्तिक, मूल, पृ० ८।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy