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________________ नियमसार प्राभृतम् १७३ अत्र नियमसारग्रन्थे तृतीये सम्यग्ज्ञानाधिकारे पूर्वोक्तक्रमेण एकसूत्रण हेयोपादेयतत्त्वाख्यानम्, सप्तभिः सूत्रैः जीवस्य नानाविधा विभावभावा न संतीति प्रतिषेधकथनमुख्यता, पंचभिः सूत्रः 'जीवस्वभावः कोशः' ? इति विधिकथन. प्रधानता, पञ्चभिः सूत्रः सम्यक्त्वे सत्येव ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति व्याख्यानम, चारित्रमाहात्म्यं तस्य कथनप्रतिज्ञा चेति अष्टादशसूत्रः त्रयोऽन्तराधिकाराः गताः । इति श्रीभगवत्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणोतनियमसारप्राभृत्तग्रंथे ज्ञानमस्थापिकाकृतस्याद्वादचंद्रिकानामटोकायां व्यवहारमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये सम्यग्ज्ञानापरतामधेयः शुद्धभावनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः । तरह मन्द सूत्रों से दर्शन और सम्यग्दान विशेष का प्रतिपादक यह तीसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ। ___ इस नियमसार ग्रन्थ में तीसरे सम्यग्ज्ञान अधिकार में पूर्वोक्त क्रम से एक गाथासूत्र द्वारा हेयोपादेय तत्त्व का कथन हुआ है । सात गाथासूत्रों द्वारा जीव के नानाविध विभाव भाव नहीं हैं, ऐसे प्रतिषेध कथन की मुख्यता से व्याख्यान हुआ। पुन: पाँच गाथासूत्रों से जीव का स्वभाव कैसा है ? इस तरह विधिपरक कथन की मुख्यता से वर्णन हुआ । पुनः पाँच सूत्रों से सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है. इस व्याख्यान को, चारित्र के माहात्म्य को और आगे चारित्र को कहने की प्रतिज्ञा को सूचित किया है। इस तरह अठारह गाथासूत्रों द्वारा तीन अंतराधिकार पूर्ण हुए हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत नियमसार-प्राभृत ग्रन्थ में आयिका ज्ञानमतीकृत स्याद्वादचंद्रिका नाम की टीका में व्यवहार मोक्षमार्गमहाधिकार के मध्य सम्यकज्ञान अपरनामवाला शुद्धभाव नाम का तीसरा अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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