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________________ कर्मोपाधितिरपेक्षस्यभावो संसारिणां पर्यायाः ॥६२॥ नियमसार- प्राभृतम् १५३ नित्यशुद्धपर्यायार्थिकः । यथा सिद्ध पर्यायसदृशाः शुद्धाः कर्मोपाधिपेोऽशुद्ध ध्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा ॥५०॥ कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्यायुद्धपर्यायार्थिको यथा संसारिणामुत्पत्तिभरणे स्तः ॥६३॥ एतत्कथनेन एवं ज्ञायते यत् शुद्धद्रव्यायिकपर्यायाथिकनयाभ्यां सर्वे संसारिणो जीवाः सिद्धसदृद्धाः तेषां गुणपर्यायाः अपि सिद्ध गुणपर्यायसदृशाः शुद्धाः एव । तथैव अशुद्धद्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनयाभ्यां संसारिणो जीवा अशुद्धास्तेषा गुणपर्यायाः अपि अशुद्धा एव इति । arathiरै: श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवैरपि एवमेव कथितम् - "संसृत अपि ये विभावभावैश्चतुभिः परिणता सन्तस्तिष्ठन्ति अपि च ते सर्वे भगवतां सिद्धानां शुद्धगुणपर्यायैः सदृशाः शुद्धनयादेशादिति ।" तात्पर्यमेतत् — असंयतसम्यग्दृष्टिर्न पद्यावलंबनेन जीवस्य यथोक्तं स्वरूपं जोव सिद्ध के समान शुद्धात्मा हैं । कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष स्वभावी नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय है, जैसे सिद्धपर्याय समान संसारी जीवों की पर्यायें शुद्ध हैं । पाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, जैसे क्रोधादि कर्मजनित भाव आत्मा है । कर्मोपाणि सापेक्ष स्वभावी, अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नम है, जैसे संसारी जीवों के जन्म-मरण हैं । इस कथन से यह जाना जाता है कि इन दोनों नयों से सभी संसारी जीव सिद्धों के भी सिद्धों की गुण पर्यायों सदृश शुद्ध ही हैं से और अशुद्ध पर्यायार्थिक नय से संसारी अशुद्ध ही हैं । । १. आलापपद्धति 1 २० शुद्ध द्रव्यार्थिक और शुद्ध पर्यायाधिक समान शुद्ध हैं । उनको गुण पर्यायें उसी प्रकार अशुद्ध द्रव्याथिक नय जीव अशुद्ध हैं, उनकी गुणपर्यायें भी टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी यही बात कही हैसंसार में भी जो चार विभाव भावों से परिणत होते हुए रह रहे हैं, वे सभी जीव शुद्धन की अपेक्षा से भगवान् सिद्धों के समान शुद्ध गुणपर्यायों से समान ही हैं । यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव दोनों नयों के अबलंबन
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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