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नियमसार-प्राभृतम्
१२९ वचनं निरस्तं जायते । संपूर्णभोगान्तरायनिरासात् क्षायिको भोगः, यस्य निमित्तेन सुरभितपुष्पवृष्टिगंधोदकवृष्टिचरणनिक्षेपस्थान-सप्तपापंक्तिसुगंधिधूपसुखशीतमारुसाक्यो जायन्ते । कृत्स्नोपभोगान्तरायनाशात् अनन्तः क्षायिक उपभोगः, यस्य निमित्तेन अशोकतसिंहासनछत्रचामरभामण्डलदेवदुंदुभिप्रभृतयो वैभवाः सन्ति । सर्वयोर्यान्तरायप्रलयादनन्तः क्षायिको वीर्यः, अनंतानुबंधिदर्शनमोहसंबंधिसप्तप्रकृतिक्षयात क्षायिकं सम्यक्त्वम् । अवशेषसर्वमोहनीयनिरासात् क्षायिकं चारित्र पथाख्यातसंज्ञ चेति ।
दानान्तरायविनाशात् अभयदानावयो भवन्ति तहि सिद्धेषु कथं न कथ्यन्ते ? नैतत्, शरीरनामतीर्थकरनामकर्मोदयापेक्षत्वात्तेषां यद्यपि सिद्धेषु नेमे, तथापि परमानंदाव्याबाधसुखरूपेणैव एषां तत्र दृत्तिः श्रूयते, इति नव भावा क्षायिकस्य कथिताः । किंचित् न्यून पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति कवलाहार के बिना कैसे संभव है ?" यह जैनाभासों का कथन निरस्त हो जाता है ।
सम्पूर्ण भोगांतराय के मष्ट हो जाने से क्षायिक भोग है । इसके निमित्त से सुरभित पुष्पवृष्टि, गंधोदकवृष्टि, चरणनिक्षेपण के स्थान में सात-सात कमल पंक्तियाँ, सुगंधित धूप, सुखकर ठंढी हवा आदि होते हैं । समस्त उपभोगान्तराय के नाश से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिसके निमित्त से अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र, चामर, भामंडल, देवदुंदुभि आदि वैभव होते हैं । सर्ववीर्यातराय के नष्ट हो जाने से अनन्त क्षायिक वीर्य होता है । अनंतानुबन्धी को चार, दर्शनमोह की तीन ऐसी सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। अवशेष सर्व मोहनीय के क्षय से क्षायिक चारित्र होता है, उसे ही यथाख्यातचारित्र कहते हैं ।
शंका-दानादि अन्तराय के विनाश से अभयदान आदि होते हैं, तो वे सिद्धों में क्यों नहीं कहे गये हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं है, ये अभयदान आदि शरीर नामकर्म तीर्थंकर नामकर्म के उदय आदि की अपेक्षा रखते हैं। यद्यपि सिद्धों में ये नहीं हैं, फिर भी परमानन्द और अव्याबाध सुखरूप से इनका वहाँ रहना सुना जाता है। ये नव भाव क्षायिक के हुये हैं।