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________________ १२८ नियमसार-प्राभृतम् भवः औपशमिकः, कर्मणां क्षये भवः शायिकः, कर्मणां क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिकः, कर्मणां उदये भवः औदयिकश्च । सकलकर्मोपाधिनिरपेक्षः परिणामे भवः पारिणामिकाच इति पञ्च भावाः जीवस्य स्वभावाः स्वतश्चमिति । एषां द्वौ, नव, अष्टादश, एकविंशतिः, अयश्च भेदा यथाक्रमेण संति । मोहस्य सप्तप्रकृत्युपशमादौपमिकं सम्यक्त्वम् अवशेषेकविशतिमोहविकल्पोपशमादौपमिकं चारित्रश्चेति विविध औपशामिकः । करस्नज्ञानावरणक्षयात् क्षायिकं केवलज्ञानम् । कृत्स्नदर्शनावरणक्षयात क्षायिक केवलदर्शनम् । सकलदानान्तरायसंक्षयात् त्रिकालगोचरानन्तप्राणिगणानुग्रहकर क्षायिकं अभयदानम् । निःशेषलाभान्तरायविनाशात् परमशुभसूक्ष्मानन्तपुद्गलानामावानं क्षायिको लाभा, अस्य निमित्तेन केवलिनां शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः पुद्गलाः प्रतिसमयं संबंधमायान्ति । तस्मात् “औदारिफशरीरस्य किन्चिन्यूनपूर्व कोटियर्षस्थितिः कवलाहारमन्तरेण कथं संभवति' इति जनाभासानां ___इसे ही स्पष्ट करते हैं-कर्मों के उपशम से हुआ भाव औपशमिक है, कर्मों के क्षय से हुआ क्षायिक है, कर्मों के क्षयोपशम से हुआ थायोपशमिक है, कर्मों के उदय से हुआ औदायिक है. कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष परिणाम में हुआ भाव पारिणामिक है। ये पांचों भाव जीव के स्वभाव या स्वतत्त्व कहलाते हैं। इन पाँचों के क्रम से दो, नत्र, अठारह, इक्कीस और तीन भेद होते हैं । औपशमिक के दो भेद हैं-मोहनीय कर्म की सात प्रकृतियों के उपशम से हुआ सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व होता है और शेष इक्कीस मोहनीय के उपशम से हुआ चारित्र औपशमिक चारित्र है। क्षायिक भाव के नव भेद हैं-सम्पूर्ण ज्ञानावरण के क्षय से हुआ क्षायिक ज्ञान केवलज्ञान है। सम्पूर्ण दर्शनावरण के क्षय से हुआ क्षायिकदर्शन केवलदर्शन है । सकल दानान्तराय के क्षय से हुआ त्रिकालगोचर अनन्त प्राणिगणों के ऊपर अनुग्रह करने वाला क्षायिकदान अभयदान है। सम्पूर्ण लाभान्तराय के विनाश से परम शुभ सूक्ष्म ऐसे अनन्त पुद्गलों का आना क्षायिक लाभ है। इसके निमित्त से केवलियों के शरीर में बलाधान के लिये कारण, अन्य मनुष्यों में असाधारण ऐसे पुद्गल प्रतिसमय सम्बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं। इससे "औदारिक शरीर की
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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