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नियमसार-प्राभृतम् अतः स्वभावदृष्टया परमार्यस्वरूपेण वा अमूनि न संति इति ज्ञातव्यम् । ततश्च परमसमाधिकाले तथैव शुद्धबुद्धनिजात्मस्वरूपमेव ध्यातव्यमिति ॥४०॥
तहि जीघस्यौपशमिकाविभावाः स्वतत्त्वमिति सिद्धांतसूत्रे गीय ने तस्कमित्याशंकायाँ ब्रुवत्यापाः
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा । ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥४१॥
खइयभावठाणा णो-क्षायिकभावस्थानानि न । खयउवसमसहावठाणा वा णो-क्षयोपशमस्वभाषस्थानानि वा न । ओदइयभाव ठाणा सवसमणे सहावठाणा वा णो-औदयिकभावस्थानामि उपशमने अमावस्यामामि या समित जीवस्य इति ।
शुद्धनिश्चयनयेन जीवस्य औपमिकक्षायिकक्षायोपशामिकोदयिकभावाः न संति, केवलं पारिणामिकभाव एव जीवस्वभावः, स तु कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशमरहितत्वेन सर्वदा सर्वतः सर्वथापि विद्यते एव । इतो विस्तर:-कर्मणां उपशमे
ध्यान के समय उसी प्रकार से शुद्ध बुद्ध निज आत्मा का स्वरूप ही ध्यान करने योग्य है, यह निश्चित हुआ ॥४०॥
जीब के औपशमिक आदि भाव स्वतत्त्व हैं, यह बात सिद्धान्तसूत्रों में कही गई है, पुनः वह कैसे घटेगा ! ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं
___ अन्वयार्थ-(खइयभावठाणा णो) जीव के क्षायिक भाव स्थान नहीं हैं, (खयउवसमसहावठाणा बा णो) क्षयोपशम स्वभाव स्थान नहीं है, (औदइय भावठाणा उवसमणे सहावठाणा वा णो) औदयिकभाव स्थान और उपशम स्वभाव स्थान भी नहीं हैं ।।४१॥
टीका-जीव के क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और औपक्षमिक भाव नहीं हैं।
शुद्धनिश्चयनय से जीव के ये औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदायिक भाव नहीं है, केवल पारिणामिक भाव ही जीव का स्वभाव है। बह कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से रहित है । अतः वह सभी काल में सब रूप से सर्वथा रहता ही है ।