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नियमसार-प्राभृतम्
स्त्रीपुरुषनपुंसक वेदोदयेन समुत्पन्नाः स्त्रीपुरुषनपुंसकभावास्तथा च अंगोपांगनामकर्मोदयेन जनिताः स्त्रीपुरुषनपुंसकशरीराकारा अपि जीवस्य न सन्ति ।
आदिशब्देन कर्मोदयजनितनानाविधभावास्तथा नानाविधविभावव्यञ्जनपर्यायाश्च जीवस्य न सन्ति । समचतुस्राविषट्संस्थानानि वज्रर्षभनाराचादिषट्सहननान्यपि जीवस्य न सन्ति । किञ्च, इमे सर्वे भावा: पुद्गलकर्मोपाधिनिमित्तेन समुद्भूताः, अतः जीवस्य न भवन्तीति ।
तात्पर्यमेतत् — असंयतसम्यग्दृष्टिर्जीवः व्यवहारनिश्चयोभयनयायत्तां देशनामवाप्य स्वात्मानं एतेभ्यः भिन्नं श्रद्धत्ते, तत्वविचारकाले मन्यते च । पुनः स्वमेभ्यः पृथक्कर्तुमिच्छन् सन् महाव्रताति आदाय गुरूणां सकाशे तिष्ठन् विशेषभेदविज्ञानबलेन निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा बुद्धिपूर्वकं रागद्वेषाविभावं जहाति । तदानीमेव निश्चयरत्नत्रय लक्षणका रणसमयसार बलेन गुणस्थानश्रेणिमारुह्य क्षीण
अर्थात् किसी भी प्रकार से नहीं हो सकते । स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद के उदय से उत्पन्न हुये स्त्री पुरुष और नपुंसक रूप भाव होते हैं और अंगोपांग नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुये स्त्री पुरुष और नपुंसक के शरीर की रचना होती है, ये भाववेद और द्रव्यवेद भी जीव के नहीं हैं ।
आदि शब्द से कर्मोदय से जनित अनेक प्रकार के भाव और नाना प्रकार की विभाव व्यंजन पर्यायें जीव की नहीं हैं । समचतुरस्र आदि छह संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन आदि छह संहनन भी जीव में नहीं है, क्योंकि ये सभी भाव पुद्दल कर्मों की उपाधि के निमित्त से उत्पन्न हुये हैं, अतः ये जीव में नहीं होते हैं ।
तात्पर्य यह निकालना कि असंयत सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों के आश्रित उपदेश को प्राप्त करके अपनी आत्मा को इन सब वर्ण आदि से भिन्न श्रद्धान करता है और तत्वों के विचार के समय वैसा ही मानता है । पुनः अपने को इनसे पृथक् करने की इच्छा रखता हुआ महाव्रतों को ग्रहण करके गुरुदेव के पास रहते हुये विशेष भेदविज्ञान के बल से निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर बुद्धिपूर्वक रागद्वेषादि भावों को छोड़ देता है । उसी समय निश्चयरत्नत्रय रूप कारण समयसार के बल से गुणस्थानों की श्रेणी में आरोहण