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________________ नियमसार- प्राभूतम् तव्विवरीया खंधा असुहमा इदि परूवेंदि - तद्विपरीताः स्कंधा : अतिसूक्ष्माः इति रूपयन्ति । के ते ? गणधरदेवादय इति क्रियाकारक संबंधः । ८४. J इतो विस्तरः ---- ये पुद्गलस्कंधाः पृथक्कर्तुं शकलीकतु वा शक्यन्ते किन्तु पुन: मेलयितुं न शक्यन्ते ते स्कंधाः अतिस्थूलस्थूलाल्या उच्यन्ते यथा पृथ्वीपवंसप्रभृतयः । ये पृथक् पृथक् कर्तुमपि शक्यन्ते परस्परं मेलयितुमपि शक्यन्ते ते स्कंधाः स्थूला इति कथ्यन्ते यथा घृतनीरतैलादितरलपदार्थाः । ये स्कंधाः नेत्राभ्यां तु वृश्यन्ते परं ग्रहीतुं न शक्यन्ते ते स्थूलसूक्ष्मनाम्ना निगद्यन्ते यथा छायातपोधोतादयः । ये चक्षुभिः न दृश्यन्ते किन्तु शेषैश्चतुरिन्द्रियैर्गृह्यन्ते ते स्कंधाः सूक्ष्मस्थूलाः इति निरूप्यन्ते, यथा स्पर्शरसनप्राणकर्णेन्द्रियाणां विषयभूताः स्पर्शरसगन्धशब्दाः । ये कार्मणवणारूपेण परिमितु योग्याः रकवास्तं सूक्ष्मा इति सूच्यन्ते इसे इन्द्रियज्ञानेन ज्ञातुमशक्याः कार्यास्तित्वमात्रेण अनुमापयितुं शक्यत्थेन अनुमानगम्याश्च । ये च कर्मवर्गणारूपेण परिणमितुमपि अयोग्या अतीय सूक्ष्माः स्कंवारते अतिसूक्ष्मा 1 कर्मणा के अयोग्य पुद्गलस्कंध 'अतिसूक्ष्म' हैं— ऐसा श्री गणधरदेव आदि ने कहा है, यह क्रियाकारक संबंध करके अर्थ हुआ । अब विस्तार करते हैं - जिन पुद्गल स्कंधों को अलग-अलग किया जा सके या उनके टुकड़े किये जा सकें, किंतु पुनः उन्हें मिलाना शक्य न हो वे पुद्गलस्कंध 'अतिबादरबादर' कहलाते हैं, जैसे कि पृथ्वी, पर्वत आदि । जिन स्कंधों को पृथक्-पृथक् भी किया जा सकता है, पुनः मिलाया भी जा सकता है, वे स्कंध 'बादर' हैं, जैसे घी जल तेल आदि तरल पदार्थ । जो स्कंध आँखों से तां देखे जाते हैं किंतु जिनका ग्रहण करना शक्य नहीं है, वे 'बादरसूक्ष्म' नाम से कहे जाते हैं, जैसे छाया, घाम, चाँदनी, प्रकाश आदि । जो स्कंध सूक्ष्मबादर हैं, ये इन स्पर्शन आदि इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्श, रस, गंध और शब्द हैं । जो स्कंत्र कार्मणवर्गणा रूप से परिणमन करने योग्य हैं, वे 'सूक्ष्म' कहलाते हैं । ये इंद्रियज्ञान से नहीं जाने जा सकते हैं, कार्य का अस्तित्व देखकर ही इनका अनुमान किया जाता है, इसलिये ये अनुमान गम्य हैं । जो स्कंध कर्मवर्गणारूप से परिणत होने योग्य नहीं हैं, ये बिल्कुल सूक्ष्म होने से अतिसूक्ष्म या सूक्ष्मसूक्ष्म कहलाते हैं, ये अवविज्ञान आदि
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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