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________________ नियमसार-प्राभृतम् प्रोक्तं च देवरेवान्यत्र "तषकालिगेव सम्वे सदसन्भूदा हि पज्जया तासि । वदृन्ते ते णाणे विसेसको दध्वजावीणं ॥३७॥ जे णेव हि संजादा जे खलु गट्ठा भवीय पज्जाया। ते होंति असम्भूदा पज्जाया णाणपच्नक्खा ॥३८॥ जादि मारपानलाई पचाइ णाणस्स | ण हववि या तं गाणं दिवं त्ति हि के पति ' ॥३९।। ये सद्भूता वर्तमाना असद्भूता अविद्यमाना भूतभाविनश्च पर्यायास्ते सर्वेप्रतीन्द्रियकेवलज्ञाने तात्कालिका इव वर्तमाना इध वर्तन्ते । तासां द्रव्यजातीनां संबधिनो विशेषतः स्वकीयस्वकीयप्रदेशकालाकारविशेषः इति । यथा वित्रभित्तौ बाहुबलिभरतादिव्यतिक्रान्तरूपाणि महापद्मतीर्थकरादिभाविरूपाणि च वर्तमानानीय प्रत्यक्षेण दृश्यन्ते, तथैव केवलज्ञानेऽपि त्रिकालवर्तिनः पर्याया वर्तमाना इव परिस्फुरन्ति । ये हि संजाता नैव, ये खलु भूत्वा नष्टाः ते पर्यायाः असद्भूता भवन्ति, ते उस केवलज्ञान में वर्तमान के समान झलकते हैं, जैसे कि दीवाल पर बने हुए चित्र आदि। श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही अन्य ग्रन्थ में यही बात कही है "विशेष रीति से सभी द्रव्य-समूह की विद्यमान और अविद्यमान (अतीतअनागत) सम्पूर्ण पर्यायें वर्तमानकालीन पर्यायों के समान ही उस ज्ञान में वर्तती हैं । जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं ये पर्यायें असद्भुत-अविद्यमान हैं, ये सब पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष हैं। यदि भविष्यत् पर्यायें और नष्ट हुई भूतकालीन पर्यायें ज्ञान के प्रत्यक्ष नहीं है तो वह ज्ञान "दिव्य' है ऐसे कौन कहेंगे ? उन सभी द्रव्यों से सम्बन्धित अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार आदि विशेषता को लिए हुए जो भी सद्भूत-बर्तमान और असद्भुत-अविद्यमान भूतभविष्यत् पर्यायें हैं वे सब अतीन्द्रिय केवलज्ञान में तत्काल हुई-वर्तमान पर्यायों के समान ही झलकती है। जैसे कि दीवाल पर बने हुए चित्रों में बाहुबली भरत आदि हो चुके मनुष्यों के रूप और महापद्म तीर्थंकर आदि आगे होने वाले महापुरुषों के रूप भी १. प्रवचनसार ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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