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नियमसार-प्राभृतम् पर्यायाः केवलज्ञान प्रत्यक्षा एव । यदि अजातः पयायः प्रलयितश्च ज्ञानस्य प्रत्यक्षो न भवति, तहि तज्ज्ञानं दिव्यमिति हि निश्चयेन के प्ररूपयन्ति ? न केऽपीति भावः ।
तथा च तज्ज्ञानमसहायं वर्तते, अन्यानपेक्षत्वात् क्षायोपशमिकज्ञानासंपृक्तत्वाच्च तदेव स्वभावज्ञानमाख्यायते, आत्मनः सहजस्वभावत्वात् इक्षोर्माधुर्य मिव । टोकाकारैः कार्यकारणभेवेन स्वभावज्ञानं द्विधा विभक्तम् । तत्र सहजविमलकेवलज्ञानं कार्य स्वभावज्ञानं, परमपारिणामिकभावस्थितत्रि कालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं कारणं स्वभावज्ञानं, केवलज्ञानस्य कारणत्वात् ।
अथवा केवल मानं कार्य, वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं कारणं, तस्योत्पत्ती कारणस्वात् ।
एतत्केवलज्ञानं स्वभावज्ञानमस्ति, निग्रन्थसंज्ञस्य क्षीणकषायस्यान्त्यसमये वर्तमान के समान ही देखे जाते हैं, वैसे ही केवलज्ञान में भी तीन काल की समस्त पर्यायें वर्तमान के समान ही स्फुरायमान हो जाती हैं। अथवा अतीत और अनागत पर्यायों के जो ज्ञेयाकार हैं ये उस ज्ञान में वर्तमान ही रहते हैं। इसलिए जो पर्यायें अभी उत्पन्न नहीं हुई हैं और जो होकर नष्ट हो गई हैं वे पर्यायें यद्यपि असद्भूत हैं तो भी केवलज्ञान में प्रत्यक्ष ही हैं। यदि वे उस ज्ञान में प्रत्यक्ष न होवें तो उस ज्ञान को "दिव्य" है ऐसा निश्चय से कौन कहेंगे ! अर्थात् कोई भी नहीं कहेंगे।
वह ज्ञान असहाय है क्योंकि अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है और क्षायोपशमिक ज्ञान से मिश्रित नहीं है । इस कारण वही स्वभावजान कहलाता है क्योंकि वह इक्षु की मधुरता के समान आत्मा का सहज स्वभाव है । टीकाकार श्री पद्मप्रभ मलधारी देव ने इस स्वभाव ज्ञान के कार्य-कारण की अपेक्षा दो भेद कर दिये हैं । उसमें सहज विमल केवलज्ञान कार्यस्वभाव ज्ञान' है और परम पारिणामिक भाव में स्थित तीनों काल में उपाधिरहित जो सहजज्ञान है वह 'कारणस्वभाव ज्ञान' है, क्योंकि वह केवलज्ञान का कारण है । अथवा केवलज्ञान कार्य है और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान कारण है क्योंकि उसकी उत्पत्ति में वह कारण है।
यह केवलज्ञान स्वभाव ज्ञान है। निर्ग्रन्थ संज्ञक क्षीणकषाय गुणस्थानवी मुनि के अंतिम समय में कर्मों की तिरेसठ प्रकृतियों का अभाव हो जाने पर प्रगट