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________________ नियमसार-प्राभृतम् त्रिषष्टिप्रकृतीनामभावे सति समुत्पद्यते। उक्तं च श्रीपूज्यपादाचार्य: "यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै संज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने' ॥१॥ यद्यपि शुद्धनयेन संसारिजीवा अपि शश्वत्कर्ममलरस्पृष्टत्वात् म्यभावज्ञानमया एव, तथापि अशुद्धनयेनानादिकर्मबंधनवशात् स्वभावज्ञानशून्याः । अथवा शक्तिरूपेण तेऽपि स्वभावज्ञानयुताः सन्ति न च व्यक्तिरूपेण, इति ज्ञात्वा ये संयताः निर्विकल्पसमाधिरूपस्वसंबेदनजाने समस्तविभावपरिणामत्यागेन रति कुर्वन्ति, त एव परमाणावैकलक्षणसुखाविनाभूत स्वभावज्ञानं लभन्त इति । पुनश्च विहावणाणं दुविहं हवे-विभायज्ञानं द्विविधं भवेत् । सण्णाणिदरवियप्पे--संज्ञानेतरविकल्पे सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानविकल्पाभ्यामिति । ज्ञानावरणकर्मणां सायोपशमापेक्षया विभावसंज्ञा कथ्यते सोपाधित्वात् ।। एतदुक्तं भवति-कृत्स्नशानावरणाभावे सर्वथा स्वात्मजन्यत्वात् सहजहोता है । श्री पूज्यपादाचार्य ने ऐसा ही कहा है __ "जिनके सर्व कर्म का अभाव हो जाने पर स्वयं अपने स्वभाव की प्राप्ति हो चुकी है उन संज्ञान स्वरूप परमात्मा को मेरा नमस्कार होवे ।" । यद्यपि शुद्धनय से संसारी जीव भी हमेशा कर्ममल से अपष्ट होने से अस्वभावज्ञानमय ही हैं, फिर भी अशुद्धनय से अनादि कर्मबंधन के वशीभूत हो रहे हैं। अतः स्वभाव ज्ञान से शून्य ही हैं । अथवा शक्ति रूप से वे भी स्वभावज्ञान से युक्त हैं, व्यक्तरूप नहीं । ऐसा जानकर जो संयत निर्विकल्प समाधि रूप स्वसंवेदन ज्ञान में समस्त विभाष परिणामों का त्याग करके रति करते हैं, वे ही परम आह्लादरूप एक लक्षणवाले सुख से अविनाभूत स्वभाव ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। पुनः विभाव ज्ञान सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । यह ज्ञानाबरण कर्म के क्षयोपशम से होता है । अतः "विभाव' नाम को प्राप्त है क्योंकि यह उपाधिसहित है। तात्पर्य यह निकला कि संपूर्ण ज्ञानावरण कर्म का अभाव हो जाने पर सर्वथा अपनी आत्मा से उत्पन्न होने वाला होने से सहजविमल केवलज्ञान 'स्वभाव१. इष्टोपदेश ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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