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________________ नियमसार-प्राभतम् विमलकेवलज्ञानं स्वभावज्ञानम् । कर्मोपाधिसापेक्षत्वात क्षायोपशामिक विभावज्ञानं, तत्तु समीचीनमिथ्याविकल्पेन द्विप्रकारमिति ज्ञात्वा समीचीनविभावज्ञानबलेनैव निजशुद्धबुद्धपरमात्मस्वरूपस्वभावशानहेतोः प्रयतितव्यम् । अधुना संज्ञानेतरविभावज्ञानस्य भेदान् प्रतिपाश्यन्ति सपणाणं चउभेदं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥१२॥ ज्ञान' है । क्योंकि कर्मों की उपाधि से सहित होने से क्षायोपशमिक ज्ञान विभाव ज्ञान है, वह समीचीन और मिथ्या के भेद से दो प्रकार है, ऐसा जानकर समीचीन विभाव ज्ञान के बल से ही निज शुद्ध बुद्ध परमात्मस्वरूप, स्वभावज्ञान के लिये प्रयत्न करना चाहिये । भावार्थ---कोई कोई कहते हैं कि सर्वज्ञ का ज्ञान भी अतीत और अनागत पदार्थों को वर्तमानकालीन पदार्थ के समान ज्यों का त्यों नहीं जानता है, उसी बात को यहाँ पर खुलासा किया है कि श्रीकुदकुददेव ने ही प्रबचनसार में "तकालिगेव" पद से स्पष्ट कर दिया है कि अतीन्द्रिय ज्ञान में सभी पदार्थ वर्तमान कालवर्ती के समान ही दिखते हैं, यदि ऐसा न माने तो फिर उस ज्ञान को दिव्य ज्ञान कहने का मतलब ही क्या रहा ? दूसरी बात इस टीका में यह है कि स्वभाव ज्ञान केवली भगवान् को है और उसके पूर्व बारहवें गणस्थान तक भी क्षायोपशमिक विभाव ज्ञान ही है, लेकिन विशेषता यही है कि इस विभाव ज्ञान से ही स्वभाव ज्ञान प्रगट होता है। अतः निर्विकल्प स्वसंवेदन को इस स्याद्वादचन्द्रिका टीका में 'कारणस्वभाव ज्ञान' कह दिया है जो कि कारण परमात्मा के सदश मान्य है। इसमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये। अब संज्ञान और मिथ्याज्ञान रूप विभावज्ञान के भेद बतलाते हैं-- अन्वयार्थर--(सणाणं चउभेदं) संज्ञान के चार भेद हैं (मदिसुदओही तहेव मणपज्ज) मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान (चेव मदियाई भेददो) और मति आदि के भेद से (अण्णाणं तिबियप्पं) अज्ञान भी तीन प्रकार का है ॥१२||
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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