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________________ नियमसार -प्राभूतम् साच्छत्तिसेनाभ्यासबलेन क्रममनतिक्रम्यानन्तगुर्णापंड सिद्धस्वरूपात्मन्येवावतिष्ठन्ते । किंच एतादृग्निविकल्पध्यान सिद्धयर्थमेव व्यवहार क्रियारूपं षडावश्यकमस्ति प्रासादारोहणाय सोपानपक्तिवत् । तथा च स्वात्मनि स्थिरत्वमपि स्वरपरभेदविज्ञानबलेन यस्मिन् शरीरे मुनिः तिष्ठति, ततो पूर्णतया निर्ममत्वं सत्येव घटते, तन्निर्ममत्वमपि स्वात्मोत्थनिराकुलानंदानुभवे संजाते सत्येव वर्धते, तस्माद् भेदविज्ञानं प्रकटयितुं सर्वप्रयत्नः कर्तव्यो भवति । ४३० रूपनिक उक्तं च श्रीपद्मनंद्याचार्येण ज्ञानज्योतिरुवेति मोह्तमसो भेदः समुत्पद्यते, सानंदा कृतकृत्यता व सहसा स्वान्ते समुन्मीलति । यस्यैकस्मृतिमात्रतोऽपि भगवानत्रेव देहान्तरे, देवस्तिष्ठति मृग्यतां सरभसादन्यत्र किं धावत ' ॥ तात्पर्यमेतत् - आसामावश्यक क्रियाणां परिपूर्णता पूर्णवीतरागतायामेवोपशांतपुन: करके ध्यानरूप निश्चय क्रियाओं को चाहते हैं, वे जिनागम के अभ्यास के बल से कम का अतिक्रमण न करके, अर्थात् क्रम से ही अनन्त गुणों के पिंड ऐसे सिद्धस्वरूप आत्मा में ही स्थित हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे निर्विकल्प ध्यान को सिद्धि के लिये ही व्यवहार क्रियारूप छह आवश्यक हैं | जैसे कि महल पर चढ़ने के लिये सीढ़ियां होती हैं। आत्मा में स्थिरता भो स्वपर भेदविज्ञान के बल से जिस शरीर में मुनि रहते हैं उससे पूर्णतया निर्ममता होने पर ही होती है । वह निर्ममता भी अपनी आत्मा से उत्पन्न निराकुल आनंद का अनुभव होने पर ही बढ़ती है । इसलिये भेदविज्ञान को प्रगट करने के लिये सर्व प्रयत्न करना उचित है । श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है--- हो जाती है और मोहरूपी अंधकार भाग जाता है, के भीतर विराजमान हैं, उसको शोघ्रता से ढूंढो । जिन भगवान् आत्मा के केवल स्मरण मात्र से भी ज्ञानरूपी ज्योति उदित वह भगवान् आत्मा इसी शरीर दूसरी जगह बाह्य पदार्थों की ओर क्यों दौड़ रहे हो ? अर्थात् शरीर में विराजमान आत्मा का ज्ञान होते ही भेदविज्ञान ज्योति प्रगट हो जाती है और मोह नष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि इन आवश्यक क्रियाओं की परिपूर्णता पूर्ण वीतरागता १. पद्मनंदिपंचविंशतिका अधिकार १ ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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