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नियमसार-प्राभृतम् यदि निश्चयावश्यकं पाश्चिन्मुनिरिच्छत्तहि किं कुर्यादिति प्रश्न उत्तरं प्रयच्छन्त्यानादवाः
आवासं जइ इच्छसि, अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं । तेण दु सामण्णगुणं संपुणणं होहि जीवस्स ॥१४७॥
जइ आवासं इच्छसि-यदि त्वमावश्यकं निश्चयनयापेक्षमिच्छसि, अप्पसहावेशु थिरभावं कुणदि-तहि हे मुमुक्षो ! महासाधो ! त्वं स्वपरभेदविज्ञानाभ्यासेन शुद्धबुद्धनित्यनिरंजनपरमानंदलक्षणनिजात्मस्वभावेषु स्थिरभावं करोषि, तत्रैवाविचलपरिणतिरूपैकाग्यध्यानं विवध्याः । तेन किं भवति ? तेण दु जीवस्स सामण्ण गुणं सपूर्णणं हादि-तेन स्वात्मनि स्थैर्यभावेन तु चेतनालक्षण जीवस्य तव परमसाम्यपीयषरसोच्छलितं निश्चयसामायिकगणं श्रामण्यगुणं वा संपूर्ण भवति ।
तद्यथा-ये केचित् पुण्यपुरुषा व्यवहारावश्यकक्रियाः पुनः पुनः कृत्वा ध्यान
यदि कोई मुनि निश्चय आवश्यक को चाहते हैं, तो वे क्या करें ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं
__ अन्वयार्थ-(जइ आवासं इच्छसि) यदि तुम आवश्यक चाहते हो, तो (अप्पसहावेसु थिरभावं कुणदि) आत्मा के स्वभाव में स्थिरभाव करो। (तेण द् जीवस्स सामण्णगुणं संपुण्णं होदि) इससे ही जीव का श्रामण्य गुण परिपूर्ण होता है।
टोका-यदि तुम निश्चयनय की अपेक्षा सहित आवश्यक को चाहते हो, तो हे ममक्ष महासाधो ! तुम स्वपर भेदविज्ञान के अभ्यास से शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानंदलक्षण निज आत्म स्वभाव में स्थिर भाव करो। उसी आत्मा में निश्चलपरिणतिरूप एकान ध्यान करो।
शंका--इससे क्या होगा?
समाधान--उस आत्मा में स्थिरता के करने से चेतनालक्षण जीव ऐसे तुम्हारा परमसाम्य अमृत रस से उच्छलित निश्चय सामायिकगुण या श्रामण्यगुण संपूर्ण हो जावेगा।
उसे ही कहते हैं--जो कोई पुण्यपुरुष व्यवहार आवश्यक क्रियाओं को पुनः