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________________ ४.३.१ नियमसार प्राभृतम् क्षीणमोगुणस्थान योजयते, तथाप्यप्रमत्तगुणस्थानादारभ्य सूक्ष्म सांप रायगुणस्थानपर्यन्तमपि तरतमभावेन शुद्धोपयोगापेक्षया घटन्ते, अतोऽप्रमत्तावस्थायाः प्राप्त्यर्थं महाव्रतमुपादेयमिति मत्वा भवद्भिरपि परमावरेण वर्तमानमुनीनां चर्याश्रयणीया ॥ १४७॥ यदि कश्चिदावश्यकं न कुर्यात्तर्हि का हानिरिति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं ददत्माचार्यदेवाः आवासएण हीणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो । पुव्वुत्तकमेण पुत्रो, तम्हा आवासयं बुज्जा ॥१४८॥ आवासण्ण होणो समणो- आवश्यकेन समतास्तत्रयंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गनामषडावश्यक क्रियाभिः होनः श्रमणो दिगंबर मुद्राधारी कश्चिद् अपि मुनिः । चरणदो पम्भट्ठो होदि-चरणतः त्रयोदशविवचारित्रादष्टाविंशतिमूलगुणेभ्यश्च प्रष्टो भवति । पुणो पुब्वतकमेण पुनः पूर्वोक्तक्रमेण चतुर्थाध्याय कथित पंच परमेष्ठि - के होने पर ही उपशांत मोह और क्षोणमोह इन दो गुणस्थानों में होती है । फिर भी अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान पर्यंत भी तरतमभाव से शुद्धोपयोग की अपेक्षा से घटित हो जाती हैं । इसलिये अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करने के लिये महाव्रत उपादेय हैं। ऐसा मानकर आपको भी परम आदरपूर्वक वर्तमान मुनियों को चर्या का आश्रय लेना चाहिये ॥ १४७ ॥ यदि कोई आवश्यक क्रिया न करे तो क्या हानि है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव कहते हैं- अन्वयार्थ - - (आवासएण हीणो समणो ) आवश्यक से रहित श्रमण ( चरणदो भट्ठो होदि ) चारित्र से प्रभ्रष्ट होते हैं । ( तम्हा पुणो पुब्वुत्तकमेण आवासयं कुज्जा) इसलिये पूर्वोक्त कम से आवश्यक करना चाहिये । टीका - - आवश्यक - समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन नाम वाली छह आवश्यक क्रियाओं से हीन श्रमणदिगंबर मुद्राधारी -रहित कोई भी मुनि तेरह प्रकार के चारित्र से और अट्ठाईस मूलगुणों से भ्रष्ट - र होते हैं । पुनः पूर्वोक्त - इसी ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय में कहे गये पंचपरमेष्ठी की
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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