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नियमशार-भाभूतम्
कोटाकोटिसागरप्रमाणं बन्धं कुर्वन्ति । तेसि वयणं सोच्चा - तेषामेकान्तवादिनां निन्दकानां वचनं श्रुत्वा, भो भव्योत्तमाः ! यूयं जिणमग्गे अभत्तिं मा कुणह- स्वर्गापवर्गप्रवेऽस्मिन् जिनमार्गे अभक्तिम् अविश्वास वा मा कुरुध्वम् ।
तथा - इवं जैनमतं सदाकालस्थायिरूपेण शाश्वतम् अनाद्यनिधनं वर्तते, विदेहक्षेत्रेषु शश्वद्विद्यमानत्वात् । पंचभरतपचैरावतेषु कथंचित् सादिसान्समपि दृश्यते, षट्कालपरिवर्तनापेक्षत्वात्, तथापि द्रव्यद्दृष्ट्या शाश्वतमेव । सर्वत्र सप्तत्युत्तरैकशतकर्मभूमिषु द्रव्यमिध्यात्वं नास्ति । तन्निमित्तेन कुदेवकुलिंगिकुत्सितशास्त्रादयोऽपि न विद्यन्ते । भावमिथ्यात्व तु सर्वत्र विद्यत एव । कदाचिद् भरतंरावतयोः हुंडावसर्पिणीनिमित्तेन द्रव्य मिथ्यात्यमुद्भवति ।
उक्तं च यतिवृषभाचार्यवर्य:
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अवसपिणि उस्सप्पिणि कालसलाया गदे यसंखाणि ।
डावसप्पिणी सा एक्का जाएवि तस्थ चिण्हमिमं ॥ १६१५ ॥ तेस्सिपि समस्समकालस्स द्विदिम्मि योवनवसेसे । विवि पाउस पहुदी विलिदियजीव उप्पत्ती ॥१६१६ ॥
कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति का बंध कर लेते हैं। उन एकांतवादी निंदक जनों के वचन सुनकर हे भव्योत्तम ! आप लोग स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले ऐसे जिनमार्ग में अभक्ति अथवा अविश्वास मत करो ।
इसे ही कहते हैं -- यह जैनमत सदा काल स्थायी रूप रहने से शाश्वत है, अनादि अनिधन है, क्योंकि विदेह क्षेत्रों में शाश्वत विद्यमान रहता है। पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रों में कथंचित् सादिसांत भी देखा जाता है, क्योंकि इनमें षट्काल परिवर्तत की अपेक्षा रहती है। फिर भी द्रव्य दृष्टि से यह शाश्वत ही है । सर्वत्र एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में द्रव्यमिध्यात्व नहीं है । इसलिये उस निमित्त से कुदेव, कुलिंगी और कुत्सित शास्त्र आदि भी नहीं हैं । कदाचित् भरत - ऐरावत क्षेत्र में डावसर्पिणी के निमित्त से द्रव्यमिध्यात्व उत्पन्न होता है ।
यह बात श्री यतिवृषभ आचार्य ने कही है-
असंख्यात अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है | उसके चिह्न यह हैं - इस हुंडावसर्पिणी काल के भीतर सुषम दुष्षम काल की स्थिति में से कुछ काल के अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पढ़ने १. तिलोय पण्णति, अ० ४ ॥