SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९७ नियमसार-प्राभूतम् रायादीपरिहारे--रागद्वेषक्रोधमानमायालोभपंचेन्द्रियविषयव्यापारख्यातिलाभपूजानिदानप्रभातविभावानां परिहारे। जो दु साहू अप्पाणं जुज दे--यः कश्चित् साधुः निजात्मानं युनक्ति । सो जोगभत्तिजुत्तो-स एव योगभक्तियुक्तो भवति, तस्यैव योगो ध्यानं परमसमाधिः सिद्धति । इदरस्स य जोगो किह हवे-इतरस्य ध्यानविहीनस्य मुनेश्च अयं योगः कथं भवेत्, न कथमिति भावः । इतो विस्तस-योगशब्दो मनोवचनकायेष्वपि वर्तते । यथा—'कायवाड़मनःकर्म योगः', परंतु अत्र समाधिवाचको गृह्यते । ये सर्वारम्भपरिग्रहविरहिता दिगम्बराः ग्रीष्मे पर्वतस्य चूलिकायां स्थित्वा ध्यानं कुर्वति, वर्षायां वृक्षस्याधः शिशिरकाले नद्यास्तटे च स्वात्मानं ध्यायन्तो योगमुद्रया वीरासनादिना वा तिष्ठति तेषामेव योगाः क्रमशः आतापनवृक्षमूलाभावकाशनामभिः कथ्यन्ते । अन्येऽपि घोरातिधोरोपवासादयो योगशब्देनोच्यन्ते । युक्त हैं । (इदरस्स य जोगो किह हवे) इनसे विपरीत साधु को योग कैसे हो सकता है ? ॥१३७॥ टीका-राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, पाँचों इन्द्रियों के विषय व्यापार, ख्याति, लाभ, पूजा, निदान आदि विभाव भावों के परिहार करने में जो कोई साधु अपनी आत्मा को लगाते हैं वे ही योगक्ति से युक्त होते हैं अर्थात् उनके ही योग-ध्याननाम से परमसमाधि की सिद्धि होती है । इनसे भिन्न-ध्यान से रहित मुनि के यह योग कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है । ___ इसी का विस्तार करते हैं--योग शब्द मन, वचन, काय में भी रहता है । जैसे काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं, यह सूत्र का अर्थ हैं परन्तु यहाँ पर योग शब्द से 'समाधि' अर्थ लेना है। __ जो सर्व आरंभ और परिग्रह से रहित, दिगंबर मुनि ग्रीष्म काल में पर्वत के शिखर पर स्थित होकर ध्यान करते हैं, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे और शीत ऋतु में नदी के किनारे अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए योगमुद्रा, जिनमुद्रा या वीरासन आदि से स्थित हो जाते हैं, उनके ही क्रम से आतापन, वृक्षमूल और अभावकाश नाम से ये योग कहे जाते हैं । अन्य भी घोरातिघोर उपवास आदि योग शब्द से कहे जाते हैं । १. तत्वार्थसूत्रअ० ६, सूत्र ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy