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नियमसार-प्राभूतम व्यवहारनयाश्रिता नियणिभक्तिः प्रमत्तसंयतमुनिपर्यन्तास्ति, निश्चयनयों - श्रिता सा भक्तिः श्रद्धाभावेन प्रमत्तविरतं यावत् । पुनः अप्रमत्तगुणस्थाने जघन्या, अपूर्वकरणगुणस्थानादारभ्योपशान्तकषायगुणस्थानपर्यन्तं मध्यमा, क्षीणकषायगुणस्थाने उत्तमा एव । ततोऽग्ने सयोगायोगकेलिनां भक्तेः फलमेवेति ज्ञात्वा स्वस्त्रगुणस्थानयोग्यतानुसारेण निर्वाणभक्तिस्तत्पदप्राप्तजिनदेवस्य भक्तिश्च निरंतरं कर्तव्यास्ति सर्वप्रयत्नेन परमावरेण । उक्तं च
एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति गीत निवारयितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितु, दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥' अधुना योगभक्तिमुक्तस्य योगिनः स्वरूप निगवन्त्याचार्यदेवाः
रायादीपरिहारे, अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू।
सो जोगभत्तिजुत्तो, इदरस्सय किह हवे जोगो ।।१३७॥ करने वाले हैं, कृतकृत्य हुए भगवान आप स्तुति के योग्य हैं और उस स्तुति का फल मोक्षसुख है।
व्यवहारनय के आश्रित निर्वाणभक्ति प्रमत्तसंयतमुनि तक होती है । निश्चय नयाश्रित वही भक्ति श्रद्धाभाव से प्रमत्तविरत मुनि पर्यंत है, पुनः अप्रमत्तगुणस्थान में जघन्यरूप है, अपूर्वकरण से लेकर उपशांतकषाय गुणस्थान पर्यंत वह निश्चय भक्ति मध्यमरूप है और क्षीणकषायगुणस्थान में उत्तम-उत्कृष्ट रूप है। उसके आगे सयोगकेवली और अयोगकेवली में भक्ति का फल ही है। ऐसा जानकर अपने-अपने गुणस्थान की योग्यता के अनुसार निर्वाण भक्ति और उस निर्वाण पद को प्राप्त हुए जिनेंद्रदेव की भक्ति सर्वप्रयत्नपूर्वक परम आदर से निरंतर करते रहना चाहिए।
कहा भी है
यह अकेली भी जिनेंद्रदेव की भक्ति दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य को पूर्ण करने में और विद्वानों को मुक्तिलक्ष्मी प्रदान करने में समर्थ है।।
अब आचार्यदेव योगभक्ति से युक्त योगियों के स्वरूप का वर्णन करते हैं
अन्वयार्थ—(जो दु साहू रायादीपरिहारे अप्पाणं जुजदे) जो साधु रागादि भाव के परिहार में आत्मा को लगाते हैं । (सो जोगभत्तिजुत्तो) बे योग भक्ति से
१. समाधिभक्ति ।