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नियमसार-प्रामृतम् अत्र भक्तिभाक्तिकभगवद्भक्तिफलानि ज्ञातव्यानि भवन्ति । पंचपरमगुर्वाविपादपद्माश्रयं गृहीत्वा परमानुरागप्रीतिभ्यां तेषां गुणोत्कीर्तनम्, बन्दनापूजाराधनोपासनादयो भक्तिशब्देनोच्यन्ते । इयं भक्तिः भव्यसम्यन्वृष्टीनामेव सर्वोत्तमा जायते नामव्यानां मिथ्यादीत का, अनोखायदेशगतानसंगता अन्योत्तमाः प्रसन्नधियो भाक्तिका भवन्ति । अर्हन्तः सिद्धाः सर्वोत्कृष्टपरमात्मपदप्राप्ता एव भगवन्तः । अथवा "जिनपतयस्तत्प्रतिमास्तदालयास्तनिषद्यकास्थानानि" अपि भगवन्निमित्तेन पूज्यानि भवंति । आचार्योपाध्यायसाधकश्चापि, भगवन्त इति गोयन्ते । तत्फलं चापि अभ्युदयं निःश्रेयसं च ।
उक्तं च भगवज्जिनसेनाचार्यण___ "स्तुतिः पुण्यगुणोत्कोतिः, स्तोता भक्ष्यः प्रसन्नधीः ।
निष्ठितार्थो भवात्स्तुत्यः, फलं श्रेयसं सुखम् ॥"
से रहित अपनी आत्मा से ही उत्पन्न असहाय-केबलज्ञान, दर्शन सुख, वीर्यस्वरूप अनंतगुणस्वभाव अपनी आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं ।
यहाँ पर भक्ति, भक्ति करने वाले भक्त, भगवान् और भक्ति का फल ये चारों जानने योग्य हैं 1 पंच परमेष्ठी आदि के चरणकमलों का आश्रय लेकर परमानुराग और प्रीति से उनके गुणों का कीर्तन, वंदना, पूजा, आराधना, उपासना आदि क्रियायें भक्ति शब्द से कही जाती हैं। यह सर्वोत्तम भक्ति भव्य सम्यग्दृष्टी जीवों के ही होती है, अभव्यों के अथवा मिथ्यावृष्टियों के नहीं । इसलिये भव्योत्तम, प्रसन्नबुद्धिवाले असंयत सम्यग्दृष्टि, देशवती और प्रमत्तविरत मुनि ही भाक्तिक-भक्ति करने वाले होते हैं। सर्वोत्कृष्ट परमात्मपद को प्राप्त हुए अहंत और सिद्ध परमेष्ठी ही भगवान हैं । अथवा-जिनपतितीर्थकरदेव, उनकी प्रतिमाएँ, उनके मंदिर और उनकी निषद्या-निर्वाणस्थान भी भगवान् के निमित्त से पूज्य हो जाते हैं। तथा आचार्य, उपाध्याय और साधु भी भगवान कहे जाते हैं । एवं अभ्युदय और निःश्रेयस मोक्ष सुख की प्राप्ति का होना ही इस भक्ति का फल है ।
भगवज्जिनसेनाचार्य ने कहा भी है--
पुण्य गुणों का वर्णन करना स्तुति है, प्रसन्नबुद्धिवाले भव्य आत्मा स्तुति १. नंदीश्वरमक्सि श्रीपूज्यपादकृत ।
२. आधिपुराण ।