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आधउपोद्घात
श्री कुंदकंददेव ने इस नियमसार ग्रन्थ में मुख्य रूप से मुनियों के आचार का वर्णन किया है। प्रथम ही इसमें मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार कहे गये हैं। उसमें मोक्ष की प्राप्ति का उपाय मार्ग है और उसका फल निर्वाण है। पुनः ग्रन्थ के नाम की सार्थकता को प्रगट करते हुए कहा है कि नियम से जो करने योग्य है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इसमें विपरीतता को दूर करने के लिए 'सार' शब्द है। जिसका स्पष्ट अर्थ हो जाता है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को एता ही नियमसार है और वही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है।
यह नियम अथवा रत्नत्रय, व्यवहार और निश्चय इन दो रूप में विभाजित है। इस ग्रन्थ में १२ अधिकार हैं। उनमें से चार अधिकार में व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है, पांचवें से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक सात अधिकार में निश्चय रत्नत्रय का वर्णन है। इसके बाद बारहवें अधिकार में मार्ग के फल रूप निर्वाण का वर्णन करते हुए अहंत और सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का कथन किया गया है । इस तरह इस ग्रन्थ में मार्ग और मार्ग के फल का वर्णन किया गया है।
बारह अधिकारों के नाम-१. जीव, २. अजीव, ३. शुद्धभाव, ४. व्यवहारचारित्र. ५. परमार्थ प्रतिक्रमण, ६. निश्चय प्रत्याख्यान, ७, परम आलोचना, ८. शुद्धनिश्चय प्रायश्चित, ९. परम समाधि, १०. परम भक्ति, ११. निश्चय परम आवश्यक और १२. शुद्ध उपयोग | १. जीवाधिकार
इस प्रथम अधिकार में ग्रन्थकर्ता ने वीर भगवान को नमस्कार कर मार्ग और मार्ग का फल ऐसा दो प्रकार कहकर मार्ग से रत्नत्रय को लिया है । पुनः कहा है कि "एदोस तिण्हं पि पत्तेय परूवणा होइ।" इन तीनों की अलग-अलग प्ररूपणा की जाएगी। इस वचन के अनुसार पहले सम्यग्दर्शन के लक्षण में 'आप्त, आगम और तत्त्वार्थ' के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। आप्त, आगम और तत्वार्थ का स्वरूप बतलाकर तत्त्वार्थ से छह द्रव्यों को लिया है। इन छह द्रव्यों में से इस अधिकार में सम्यक्त्व के विषय भूत मात्र जोष तत्व का निरूपण किया है।
इसकी स्यावादचन्द्रिका टीका के प्रारम्भ में मैंने सर्वप्रथम श्री जिनेंद्रदेव, सरस्वती, गणधर परमेष्ठी को नमस्कार कर ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्ददेव की भक्ति करते हुए भेद-अभेद रत्नत्रय को प्रगट करने की भावना से इस टीका की रचना प्रारम्भ की है। प्रारम्भ में ही इस पूरे ग्रन्थ की भूमिका थोड़े से शब्दों में लिखो है। इस टीका में प्रायः मैंने जो भी विषय स्पष्ट किया है वह पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के आधार से हो लिया है अतः यथास्थान उन ग्रन्थों के या ग्रन्थकर्ता के नाम दे दिये हैं । सर्बत्र नयविवक्षा घटित की है और हर एक प्रकरण को मुणस्थानों में घटित करने का प्रयास भी किया है अनन्तर तात्पर्य अर्थ भी लिया है उसमें आज हमें क्या करना चाहिए । यह ध्वनित किया है।
उसका एक उदाहरण"अथवा प्रमत्ताप्रमत्तमुनीनामपि मोक्षमार्गो व्यवहारनयेनैव परम्परया कारणत्वात् ।