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ॐ नमः सिद्धेभ्यः श्रीमद्भगवस्कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतम् नियमसार-प्राभतम् आगिंका-ज्ञानमती-रिमिन-स्थानाधिकाटीकासहितम्]
जीवाधिकारः
मङ्गलाचरणम् सिद्धेः साधनमुत्तमं जिनपतेः श्रीपावपनद्वयम्, भव्यानां भवदावदाहामने मेघं सुधावर्षणम् । ज्ञानानन्दकरं मुबोधजननं प्रत्यूहविध्वंसनम्, भक्त्याहं प्रणमाम्यसौ जिनपतिमें स्यात्सवा सिद्धये ॥१॥ वन्दे वागीश्वरी नित्यं जिनववत्राम्जनिर्गताम् । वाकशुद्ध नयसिद्धय च, स्पाहावामृतभिणीम् ॥२॥ सप्तद्धियुतयोगीशान्, गौतमादिगणेशिनः ।
भारया पुनः पुनौमि श्रुतवारिधिपारगान् ॥३॥ सिद्धि के लिये साधन, श्रेष्ठ, भव्यों के संसार दावाग्नि दाह को शांत करने में अमृत की वर्षा करने बाले मेघस्वरूप, ज्ञान और आनन्द को करने वाले, सम्यग्ज्ञान को प्रगट करने वाले और विघ्नसमूह को नष्ट करने वाले ऐसे जिनेंद्रदेव के श्री चरणकमलयुगल को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ। वे श्री जिनेन्द्रदेव सदा मेरी सिद्धि के लिये होवें ॥१॥
जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकली हुई और स्याद्वादरूपी अमृत को अपने गर्भ में धारण करने वालो ऐसी वागीश्वरी नामक सरस्वती देवी की में अपने वचन की शुद्धि और नयों की सिद्धि के लिये बंदना करता हूँ ॥२॥
सात ऋद्धियों से सहित महायोगीश्वर, श्रुतसमुद्र के पारंगत ऐसे श्री गौतम स्वामी आदि गणधर देवों को मैं भक्तिपूर्वक पुनः नमस्कार करता हूँ ॥३॥