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नियमसार-प्रामृतम्
५०७ ज्ञातं मग्रार्हत्केवलिभागवतां स्वरूपं पुनः सिद्धानां किंस्वरूपम् ? अथवा भगवानायपः क्षये क्य तिष्ठति ? इत्यादांकायामाचार्यकर्याः समादधने
आउस्स बयेग पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीणं । पच्छा पावइ सिग्छ, लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७६।।
आउस्स खयेण पुणो सेसपयडीणं णिण्णासो होइ-केवलिनो भगवतो मनुष्यायु:कर्मणः क्षयेण पुनः तस्मिन्नेव काले शेषाणां चतुरशीतिप्रकृतीनामपि निर्मूलतो नाशो भवति । तदनु क्व गच्छति ? पच्छा सिग्धं समयमेतण लोयम्ग पावइ-पश्चात् शीघ्र समयमात्रेणैव लोकाग्रं त्रैलोक्यस्यान्तिमभागं प्राप्नोति गच्छति ।
इतो विस्तर:-भगवन्तः केवलिकाले कतिपयदिवसावशेषे योगं निरुन्धन्ति, यथा वृषभदेवाश्चतुर्दशदिनानि भगवन्महावीरस्वामिनश्च दिवसहयं योगनिरोधं चक्रुः । तदा शिज्ञप्तिक्रियाया व्यतिरिक्तवमानस्थानोपवेशनविहारक्रिया अबरुद्धा भवन्ति, तथापि ते केवलिनः सयोगिगुणस्थान एवं तिष्ठन्ति, यदायुषो लध्वंतर्मुहर्तकालमव
मैंने अहंत भगवान का स्वरूप जान लिया, पुनः सिद्धों का क्या स्वरूप है ? अथवा आयु के नाश हो जाने पर भगवान् कहाँ रहते हैं ? ऐसी आशंका होने पर आचार्यदेव समाधान दे रहे हैं
अन्वयार्थ—(आउस्स खयेण पुणो सेसपयडीणं णिण्णासो होइ) आयु का क्षय हो जाने पर पुनः शेष प्रकृतियों का नाश हो जाता है। (पच्छा समयमेत्तेण सिग्ध लोयम्गं पावइ) अनंतर शीघ्र ही समयमात्र में वे भगवान् लोकाग्न को प्राप्त कर लेते हैं।
टोका-केवली भगवान् के मनुष्यायु कर्म का क्षय हो जाने से पुनः उसी क्षण में शेष चौरासी प्रकृतियों का भी निर्मूल नाश हो जाता है। इसके बाद वे शीघ्र ही एक-समयमात्र में तीन लोक के अंतिम भाग को प्राप्त कर लेते हैं।
इसे ही कहते हैं-भगवान् अपने केवली के काल में कुछ दिन शेष रहने पर योग का निरोध करते हैं। जैसे कि वृषभदेव ने चौदह दिन का और भगवान् महावीर ने दो दिन का योग निरोध किया था। उस काल में जानने और देखने की क्रिया को छोड़कर वचन, स्थान, उपवेशन, श्रीविहार इन क्रियाओं का निरोध हो जाता है। फिर भी वे केवली सयोगी गुणस्थान में ही रहते हैं और जब आयु