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नियमसार-प्राभूत शिष्यते तदाऽयोगिजिनगुणस्थानमारुह्य तत्रोपान्त्यसमये ते द्वासप्ततिप्रकृतीनामन्त्यसमये त्रयोदशप्रकृतीनां च निर्णाशं कुर्वन्ति । तासां नामानि कथ्यन्ते
औदारिकादिपंचशरीरपंचबंधनपंचसंघातव्यंगोपांगषट्संस्थानषट्संहननपंचवर्णपंचरसद्विगंधाष्टस्पर्शस्थिरास्थिरशुभाशुभसुस्वरदुःस्वरदेवगतिगत्यानुपूर्वीप्रशस्तविहा . योगत्यप्रशस्तविहायोगतिदुर्भपनिर्माणायशःकीर्त्यनादेयप्रत्येकापर्याप्तागुरुलघपधातपर - घातोच्छ्वासोनुदयरूपैकवेदनोयनीचगोत्रनामेमा नश्यन्ति । तदनु तेषामेवान्त्यसमय उदयागतैकवेदनीयमनुष्यगतिगत्यानपूर्व्यपंचेन्द्रियजातिसुभगत्रसबादरपर्याप्त्यादेययशः - कीर्तिमनुष्यायुतीर्थकरप्रकृतयः क्षीयन्ते । केषांचित् सामान्यकेलिनां तीर्थकरमंतरेण द्वादशप्रकृतय एव नश्यन्ति । तस्मिन्नेव समये ते ऋजुगत्याऽस्मान्मध्यलोकात् सप्त. रज्जु यावद् गत्वा लोकान्ते विराजन्ते । ते पद्मासनेन खगासनेन वा सिद्धयन्ति न चान्यासनेन, पुनश्च सर्वे सिद्धात्मानस्तत्र तथैव तिष्ठन्ति सदाकालम् । का काल लघु अंतर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, तब अयोगी जिन नाम के चौदहवें गुणस्थान में चढ़कर वहाँ द्विचरम समय में वे बहत्तर प्रकृतियों का और अंतिम समय तेरह प्रकृतियों का नाश कर देते हैं । उन प्रकृतियों के नाम कहते हैं---
औदारिक आदि पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, निर्माण, अयशःकोति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरूलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, अनुदयरूप एक वेदनीय और नीचगोत्र ये प्रकृतियाँ नष्ट होती हैं । इसके बाद उन्हीं के अंतिम समय में उदय प्राप्त एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुध्यगत्यानुवर्ती, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, अस, बादर, पर्याप्ति, आदेय, यशःकीति, मनुष्यायु और तीर्थंकर प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं । किन्हीं सामान्य केवलियों के तीर्थङ्कर प्रकृति के बिना बारह प्रकृतियाँ ही नष्ट होती हैं । तब उसी समय में वे भगवान् ऋजुगति से इस मध्य लोक से ऊपर सात राजु पर्यन्त जाकर लोक के अन्त में विराजमान हो जाते हैं। वे पद्मासन से या खडगासन से सिद्ध होते हैं अन्य आसन से नहीं। पुनः सभी सिद्ध भगवान् सदाकाल वहाँ ही विराजमान रहते हैं । १. गोम्मटसार कर्मकांड, गामा ३०-३४१ ।