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________________ ५२० नियमसार-प्राभूतम् इत्यवबुध्य निरन्तरं सुखदुःखबाधाक्षुत्तडादिरहिताना त्रिभुवनगुरूणां सिमामां भक्तिस्तुतिवन्दनाराधनोपासनाजपानुस्मरणगुणकीर्तनध्यानाविभिः स्वमनः पवित्रीकर्तव्यम् ॥१७९-१८१॥ तहि तत्र निर्बाणे कि किमस्तीति जिज्ञासायां श्रीकुन्दकुन्ददेवा उपदिशन्तिविज्जदि केवलणाणं, केवलसोखं च केवलं विरियं । केवलदिदि अमुत्तं, अस्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥१८॥ केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरिय केवलदिदि विज्जदि-तत्र निर्वाणारगो देषां शिक्षा पर सचिराचारक्षम केवलज्ञान विद्यते, त्रैलोक्यत्रकाल्पजीवानां पुंजीभूतसर्वसुखापेक्षयापि अनन्तगुणाधिकं केवलसौख्यं विद्यते । उक्तं च त्रिलोकसारमहाशास्त्रे चक्फिकुरुफणिसुरेवेसहमिवे में सुहं तियालभयं । तत्तो अणंतगुणिवं सिद्धाणं खणसुहं होदि'॥ ऐसा समझकर निरन्तर त्रिभुवनगुरु सिद्धों की भक्ति, स्तुति, वंदना, आराधना, उपासना, जाप्य, अनुस्मरण, गुणकीर्तन और ध्यान आदि के द्वारा अपना मन पवित्र करना चाहिये ॥१७९-१८०-१८१।। ___तो पुनः उस निवणिपद में क्या-क्या है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री कुंदकुंददेव कहते हैं ___ अन्वयार्थ—(केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं केवलदिट्टि अमुत्तं अत्यित्तं, सप्पदेसत्तं विज्जदि) केबल ज्ञान, केवलसौख्य, केवल वीर्य, केवल दर्शन, अमूर्त, अस्तित्व और सप्रदेशत्व-सिद्धों में ये गुण रहते हैं। टीका-उस निर्वाण स्थान में उन सिद्धों के एक साथ सर्व पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान रहता है। तीन लोक और तीन काल के सभी जीवों के इकट्ठे हुये सर्व सुखों की अपेक्षा भी अनंत गुणा अधिक सुख सिद्धों में केवलसौख्य नाम से रहता है। त्रिलोकसार महाशास्त्र में कहा है चक्रवर्ती, देवकुरु-उत्तरकुरु की भोगभूमियाँ, धरणेद्र, सुरेन्द्र और अहमिंद्र इन सबका तोन काल सम्बन्धी जो सुख है, उससे भी अनंत गुणा अधिक सुख सिद्धों १, निलोकसार, गाथा ५६० ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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