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नियमसार-प्राभूतम् यावत् श्रीवीरनाथस्य वर्तेत भुवि शासनम् । तावद ग्रंथोऽप्ययं स्थेयात् नंद्याच भव्यमानसे ॥४॥ ये सिद्धाः समयत्रये नृजगतः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति च,
से सर्वे व्यवहारनिश्चयमयं रत्नत्रयं प्राप्य हि। टोकास्यै मम मंगलं च जगते संधाय कुर्वन्त्वमी,
वत्या ज्ञानमती जगस्त्रयनुतां स्युर्मेऽचिरात् सिद्धये ॥५॥ समाप्तेयं स्याद्वादचन्द्रिकानाम्नी टोका नियमसारप्राभूतस्य ।
समाप्तोऽयं ग्रंथः
वर्धतां जिनशासनम
जब तक श्री वीरप्रभु का शासन इस पृथ्वी पर बर्तन करे, तब तक यह ___ ग्रन्थ भो इस पृथ्वी पर स्थित रहे ओर भव्यों के मन में हर्ष उत्पन्न करता रहे।
जो इस मनुष्य लोक से भूत, वर्तमान और भविष्यत् इन तीनों कालों में सिद्ध हुये हैं, सिद्ध हो रहे हैं और सिद्ध होवेंगे, वे सब व्यवहार-निश्चय स्वरूप रत्नत्रय को प्राप्त कर ही हुये हैं, होते हैं और होबेंगे । ये सब सिद्ध भगवान् इस टीका के अंत में मेरे लिये, चतुर्विध संघ के लिये और सर्वजगत् के लिये मंगल करें । पुनः मुझे तीनों जगत् से नमस्कृत ऐसो ज्ञानमती (केवलज्ञानी) देकर शीघ्र ही मेरो सिद्धि के लिये होवें । नियमसार-प्राभृत की स्याद्वादचन्द्रिका नाम की
यह टीका समाप्त हुई।