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नियमसार-प्राभृतम् भिश्च मार्गप्रभावनां कुर्वन्त्यः स्वप्रभावेन संबोवनेन प्रेरणया च पुरुषानपि मोक्षमार्गे स्थापयन्त्यो भव्यभाक्तिकश्रावकविद्वद्भिश्च बंशाः पूज्या भवन्ति ।।
__भगवतां समवसरणमुत्कृष्टेन द्वावशयोजनप्रमाणं जघन्येनकयोजनमात्रमेव । समवसरणस्य सभाभूमौ द्वादशकोष्ठेषु क्रमेण गणधरप्रमुखऋषिकल्पवासिनीदेव्यायिकाधाधिकाज्योतिर्वासिदेवीभ्यंतरिणीभवनवासिनोभवनवासिदेवव्यंतरदेवज्योतिष्कदेबकल्पवासिदेवचक्रवत्यादिमनुष्यसिंहादितिर्यग्जीवा उपविश्य दिव्यध्वनि शृण्वन्ति । तीर्थकरदेवमाहात्म्येन असंख्यातभव्यजीचा भगववंदना भक्ति कुर्वाणास्तत्र स्थातुमपवेष्टुच शक्नुवन्ति परस्परमबाधमाना अस्पृष्टा 'एव ।
तात्पर्यमेतत-ये मुनयः स्वपरभेवविज्ञानबलेन सततं स्वात्मानं शुद्ध खनित्यनिरंजनपरमानंदज्ञानदर्शनज्योतिःस्वरूपं मन्यन्ते, तथैव चिन्तयन्ति भावयन्त्यनुभवन्ति
श्रद्धान, ज्ञान चारित्र और तप के द्वारा तथा धर्मोपदेश आदि के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करतो हुई अपने प्रभाव से, संबोधन से और प्रेरणा से पुरुषों को भी मोक्ष मार्ग में स्थापित करती हुई भव्य भक्त श्रावकों द्वारा और विद्वानों द्वारा वंदनीय, पूजनीय हो रही हैं।
भगवान् का समवसरण उत्कृष्ट रूप से बारह योजन का होता है और कम से कम एक योजन मात्र का होता है। समवसरण को सभा भूमि में बारह कोठों में क्रम से १--गणवर आदि मुनि, २ - कल्पवासिनी देवियाँ, ३-आपिका-श्राविकायें, ४-ज्योतिर्वासी देवियाँ, ५-व्यंतरदेवियाँ, ६-भवनवासो देवियाँ, ७-भवनवासा देव, ८-व्यंतरदेव, ९-ज्योतिष्क्रदेव, १०-कल्पवासी देव, चक्रवर्ती आदि भनुष्य और १२-तिर्यंच जीव । ये सब अपने-अपने कोठों में बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि को सुनते हैं । तीर्थंकर देव के माहात्म्य से असंख्यात भव्य जीव भगवान् की वंदना भक्ति करते हुए परस्पर में एक-दूसरे को बाधा न देते हुए एक-दूसरे से अस्पष्ट, अलग-अलग रहते हुये ही वहाँ पर ठहर सकते हैं और बैठ सकते हैं। अर्थात इतनी अधिक भीड़ होने पर भी वहाँ परस्पर में धक्कामुक्की या कसमकसी नहीं होती है।
यहाँ तात्पर्य यह समझना कि जो मुनिराज स्वपर भेदविज्ञान के बल से सतत हो अपनी आत्मा को शुद्ध बुद्ध नित्य निरंजन परमानंद ज्ञानदर्शन ज्योति १. तिलोयपाणत्ति, अ० पृ० २६६ ।