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________________ नियमसार-प्राभृतम् ३०१ नियमा - सः संयमेन परिणतः संयतः नियमात् पच्चक्खाणं धारदुं सक्कदि --व्यवहा रनिश्चयलक्षणमुभयमपि प्रत्याख्यानं धतुं शक्नोति नात्र संदेहोऽस्ति । इती विस्तरः- चतुर्दशपूर्वान्तर्गते नवमे प्रत्याख्याननामधेये द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषसंहननाद्यपेक्षया सावद्यवस्तूनां त्यागोऽनवद्यवस्तूनां वा तपोभावनया बहुविधोपवासादिकं च प्रतिपाद्यते । अस्य प्रत्याख्यान पूर्वस्य माहात्म्यं श्रूयते आर्षप्रन्ये । उक्तं च श्रीनेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवतिदेवैः - तीसं वासो अम्मे, वासनुधत्तं खु तित्थयरमूले | पच्चक्खाणं पढियो, संक्षूणयुगा उयविहारो ॥ यः कविच भव्यो जन्मनः प्रभृतित्रिंशद्वर्ष पर्यतं सुखपूर्वकमतीत्य पुनः अभ्यास करते हैं वे संयम से परिणत हुए संयत महासाधु नियम से व्यवहार निश्चयलक्षण दोनों प्रकार के प्रत्याख्यान को भी धारण करने में समर्थ हो जाते हैं इसमें संदेह नहीं है । इसी को कहते हैं wwww चौदह पूर्व के अंतर्गत नवमां प्रत्याख्यान नाम का पूर्व है उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष के संहनन आदि की अपेक्षा से सदोष वस्तुओं के त्याग का, तप की भावना से निर्दोष वस्तुओं के भी त्याग का, और बहुत प्रकार के उपवास आदि का प्रतिपादन किया गया है । आर्ष ग्रन्थों में भी इस प्रत्याख्यानपूर्व का माहात्म्य सुना जाता है । श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीदेव ने कहा भी है- "जो जन्म से तीस वर्ष बाद तीर्थंकर देव के पादमूल में प्रत्याख्यानपूर्व को पढ़ते हैं उन्हीं के संध्याकाल से अतिरिक्त दो कोश विहार करने रूप ऐसी परिहारविशुद्धि ऋद्धि हो जाती है ।" जो कोई भव्यजीव जन्म से लेकर तीस वर्षं पर्यंत घर में सुख पूर्वक रहकर १. गोम्मटसार जीवकांड, संयममार्गणा ।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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