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________________ २६२ नियमसार-प्राभतम् इति भावनाभिः परमार्थप्रतिक्रमणसिद्धिर्भविष्यति ॥८९॥ एवं "एरिसभेदभास"-इत्यायेकसूत्रेण प्रतिक्रमणहेतुं प्रवश्य, 'मोत्तूण वयणरयणं' इत्याद्यकसूत्रेण शब्दोच्चारणं त्याजयित्वा, "आराहणाइ वट्टइ" इत्यादिषट्सपैनिश्चयप्रतिक्रमणस्य विविधलक्षणं विहितम् । इत्यष्टसूत्रेः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । अनाद्यविद्यावासितवारानाबलेन जीवेन कि वि भावितं किं किंवा न भावितमिति श्रोकुन्दकुन्ददेवा भाषन्त मिच्छत्तपहुदिभावा, पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं । सम्मत्तपहुदिभावा, अभाविया होति जीवेण ॥९॥ स्यावावचन्द्रिका जोवेण पुवं सुइरं-अनेन भन्यवरपुण्डरोकजीवेन पूर्वमनादिकालात् अद्यप्रभृत्यनन्तकालपर्यन्तम् । मिच्छत्तपहुदिभावा भाविया-मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाय इन भावनाओं से परमार्थ-प्रतिक्रमण की सिद्धि होगी ।।८९॥ इस तरह “एरिसभेदभासे” इत्यादि एक सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण के हेतु को दिखलाकर "मोत्तूण वयणरयण" इत्यादि एक सूत्र से शब्द के उच्चारणरूप प्रतिक्रमण का त्याग कराकर, "आराहणाइ वट्टइ" इत्यादिरूप छह सूत्रों द्वारा निश्चय-प्रतिक्रमण के विविध लक्षण कहे गये हैं। इस प्रकार इन आठ सूत्रों द्वारा द्वितीय अंतराधिकार समाप्त हुआ । अनादि अविद्या के निमित्त से हुए जो संस्कार उनके बल से इस जीव ने क्या-क्या तो भाया हुआ है और क्या-क्या नहीं भाया है ? पूछने पर श्रीकुंदकुंददेव कहते हैं--- ___अन्वयार्थ--(जीवेण सुइरं पुव्वं मिच्छत्तपहुदिभावा भाविया) इस जोव ने चिरकाल तक पूर्व में मिथ्यात्व आदि भावों को भाया है, (जीवेण सम्मत्तपहदिभावा अभाविया होति) किन्तु इस जीव ने सम्यक्त्व आदि भावों को नहीं भाया है। टोका--इस भव्य वर पुण्डरीक जोव ने पूर्व में अनादिकाल से लेकर आज तक अनंतकाल पर्यंत जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-जो बंध के
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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