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नियमसार-ग्राभृतम् अस्याः प्रकृतेः बंधेऽपायविचयषम्यध्यानमपि सहकारिकारणं वर्तते । तथैव घोक्तमनगारधर्मामृते
श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलनुष्टुःखबादस्कंधे चक्रम्यमाणानतिथकितमिमानुखरेयं वराकान् । इत्यारोहत्परानुनहरसविलसवभावनोपात्तपुण्य
प्रकाम्तेरेव वाक्यैः शिवपयमुचितान शास्ति योऽर्हन् स नोऽव्यात' ॥२॥ अस्यापायविषयघHध्यानस्थ पुनः पुनः अभ्यासेन ये जन्मान्तरे तीर्थकरप्रकृत्युदयमनुभवन्ति, तेषामेवोपमारहिता विध्या वाणी भव्यसस्यान सिंचति । ननु दिव्या वाणी कीदृशी ? इति चेत्, श्रूयताम् । तथैव प्रोक्तं श्रीयतिवृषभाचार्येण
अट्टरसमहाभासा खुल्लयभासा सयाई सत्त तहा ।
अपाखरमणक्खरप्पय सम्णीजीवाण सयलभासाओ। इस प्रकृति के बांध में अपायविचय धर्मध्यान भी सहकारी कारण है ।। इसी बात को अनगारधर्मामृत में कहा है
इस संसाररूपी भयंकर वन में दुःखरूपी दावानल अग्नि अतिशयरूप से जल रही है, जिसमें अपने हित के मार्ग से अनभिज्ञ हुए ये बेचारे प्राणी झुलसते हुए. अत्यंत भयभीत होकर इधर-उधर भटक रहे हैं। मैं इन बेचारों को इससे निकाल कर सुख में पहुंचा दूं । इस तरह पर के ऊपर अनुग्रह करने की बढ़ती हुई भावना के रसविशेष से तीर्थकर सदृश पुण्य संचित कर लेने से दिव्यध्वनिमय वचनों के द्वारा जो उसके योग्य मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, वे अहंत जिन हम लोगों की रक्षा करें।
___ इस अपायविचय धर्मध्यान के पूनः पुनः अभ्यास से जो जन्मान्तर में तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अनुभव करते हैं, उन्हीं की उपमारहित दिव्य वाणी भव्यजीवरूपी खेतो को सिंचित करती है।
प्रश्न-यह दिव्यवाणी कैसी है ? उत्तर-सुनिये, जैसा कि श्री यतिवृषभ आचार्य ने कहा है
अठारह महाभाषा, सात सौ लघभाषा तथा ओर भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षर भाषायें हैं, उनमें तालु, दांत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से १. अनगारधर्मामृत, अ० १, श्लोक २ ।