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________________ नियमसार-प्राभृतम् २५१ सम्यक् श्रद्धानं तस्यैव बोधस्तत्रैव स्वरूपे आचरणम्, एतन्निश्चयरत्नत्रयलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद् व्यतिरिक्ता मा काचित् प्रवृत्तिः, साप्यनाचारो निश्चयाचारापेक्षया कथ्यते । __ये महातपोधना व्यवहारचारित्रस्वरूपमूलोत्तरगुणान् परिपालयन्तः परिपूर्णधारित्रास्त एव परमार्थस्वरूपाचारे स्थिरत्वं लभन्ते, अतस्त एव महर्षयः परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपा भवन्ति । एतत्प्रतिक्रमणमपि प्रमत्ताप्रमत्तमनीनामेव, न च श्रावकाणां तेषामधिकाराभावात् । इति ज्ञात्वा स्वस्वपदानुसारेणैव क्रिया कर्तव्या भवति भन्यानाम् ॥८५।। अन्यदपि यत्प्रतिक्रमणस्य लक्षणं तदेव सूचयन्ति सुरिवर्याः उम्मनगं परिचत्ता, जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥८६॥ निज शुद्धात्मतत्त्व का सम्यश्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी निज स्वरूप में आचरण-यह निश्चय रत्नत्रय-परमोपेक्षा नाम का संयम है, इससे अतिरिक्त जो कुछ भी प्रवृत्ति है, निश्चय-आचार की अपेक्षा बह सब 'अनाचार' है। जो महातपोधन मुनि व्यवहार-चारित्रस्वरूप मूलगुण उत्तरगुणों का पालन करते हुए चारित्र में परिपूर्ण हो जाते हैं, वे ही परमार्थस्वरूप आचार में स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं, अतः वे ही महर्षिगण परमार्थ प्रतिक्रमण स्वरूप हो जाते हैं । ___ यह प्रतिक्रमण भी प्रमत्त-अप्रमत्त मुनियों के ही होता है, न कि श्रावकों को, क्योंकि उनको इसमें अधिकार नहीं है। ऐसा जानकर अपने-अपने पद के अनुसार ही भव्यों को क्रिया करनी चाहिए। अन्य भी जो प्रतिक्रमण का लक्षण है, सूरिवर्य उसी को दिखलाते हैं अन्वयार्थ--(जो दु उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे थिरभाव कुणदि) जो मुनि उन्मार्ग को छोड़कर जिन मार्ग में स्थिरभाव करते हैं, (सो पडिकमणं उच्चइ) में प्रतिक्रमण कहलाते हैं, (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं।
SR No.090307
Book TitleNiyamsara Prabhrut
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1985
Total Pages609
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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